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________________ प्रथम अध्याय प्रातः- पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश-यह पांच महाभूत हैं। इन पांच महाभूतों से एक आत्मा उत्पन्न होता है। इन सूतों का नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है। चार्वाकों का यह कथन भ्रमपूर्ण है। क्योंकि पृथिवी आदि भूतों के गुण और हैं और आत्मा का गुण ( चैतन्य ) और है। जहां गुण में भेद होता है। अगर यह कहा जाय कि अलग-अलग एक-एक भूत में चैतन्य को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है किन्तु सब भूत मिलकर जव शरीर का आकार धारण करते हैं तब उनले चैतन्य उत्पन्न होता है, तो इसका समाधान यह होगा कि जो गुण प्रत्येक पदार्थ में-जुदी अवस्था में नहीं होता वह उनके समूह से भी नहीं हो सकता । रेत के एक कण में अगर चिकनापन नहीं है तो वह रेत के देर में भी नहीं आ सकता । पृथिवी आदि सभी भूत अगर चैतन्यहीन हैं तो उन सब का समूह भी चैतन्यहीन ही होगा। अगर जुदी-जुदी अवस्था में भी भूतों में चेतना शक्ति स्वीकार की जाय तो जब पांचों मिलकर शरीर का आकार धारण करते हैं तब एक शरीर में ही पांव चेतनाएं पाई जानी चाहिए। . इसके अतिरिका, यदि पांच सूतों के समूह से चैतन्य की उत्पत्ति मानी जाय तो जीव की कभी मृत्यु नहीं होनी चाहिए, क्योंकि मृतक शरीर में भी पांचों भूत विद्यमान रहते हैं। शंकाः- मृतक शरीर में वायु और तेज नहीं रहते इसी कारण जीव मृत कहलाता है। अतः मृत शरीर में पांचों भूतो का सद्भाव बताना ठीक नहीं ? समाधान:-मृतक शरीर में सूजन देखी जाती है अतः वहां वायु का सदभाव अवश्य है और मवाद की उत्पत्ति होने के कारण तेज का सद्भाव भी मानना पड़ेगा। इस प्रकार पांचों भूतों का अस्तित्व बने रहने के कारण किसी भी जीव की कभी मृत्यु न होनी चाहिए । मगर मृत्यु सभी प्राणियों की यथावसर होती है अतः सिद्ध है कि पांच भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हुई है, वरन् चैतन्य गुण वाला श्रात्मा अलग है। __ श्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए ऊपर जो कुछ कहा गया है उसके अतिरिक्त और भी अनेक युक्तियां दी जा सकती हैं । जैसे-एक ही माता-पिता की सन्तान में बहुत अन्तर देखा जाता है। कोई प्रमादी, अज्ञान, उद्दण्ड और कपायी होता है, कोई उद्योगशील, बुद्धिमान् नम्र और शान्त स्वभाव वाला होता है, एक साथ उत्पन्न होने वाले दो वालको के स्वभाव में भी यह अन्तर पाया जाता है, इसका कारण पूर्व जन्म के संस्कार ही है। पूर्व जन्म के संस्कार तभी अपना प्रभाव दिखला सकते हैं जब परलोक से आने वाला प्रात्मा स्वीकार किया जाय। यूरोप में आत्मा और परलोक की खोज के लिए एक परिपद् की स्थापना हुई थी। उसमें यूरोप के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नास्तिक वैज्ञानिक थे। उन्होंने कई वर्षों तक अन्वेपण करने के पश्चात् परलोक का अस्तित्व स्वीकार किया था और इस प्रकार
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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