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________________ IndianRDOEAaw a ta चौदवा अध्याय धर्म का उपदेश दिया था और श्राद्य एवं अन्तिम तीर्थंकरों ने पंच महावत रूप धर्म का कथन किया था। ऐसी अवस्था में समस्त जिलों के धर्म की एकरूपता किस प्रकार सिद्ध हो सकती है ? समाधान-धर्म तत्व की एकरूपता के विषय में ऊपर जो कहा गया है, उससे .. यह नहीं समझना चाहिए कि समस्त तीर्थंकरों के उपदेश के शब्द भी एक-से ही होते हैं । श्रोताओं की परिस्थिति के अनुसार धर्मोपदेश की शैली में और उसके बाहर रूप में भेद हो सकता है किन्तु मौलिक रूप में भेद कदापि नहीं हो सकता। व्रतों को चार भागों में विभक्त करना या पांच भागों में विभक्त करना विवक्षा पर आश्रित है। यह मौलिक सिद्धान्त नहीं है । मौलिक विषय तो यह है कि अहिंसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह को सभी तीर्थकरों ने धर्म कहा है । किस्लीभी काल में और किसी भी देश में कोई भी तीर्थकर ब्रह्मचर्य को धर्म या अब्रह्म को धर्म नहीं कह सकते। . . ...... इस प्रकार धर्म के वाह्य रूपों में भले ही भिन्नता दृष्टिगोचर हो फिन्तु उनका अन्तस्तत्व सदा सर्वत्र समान ही होगा । इसी कारण नन्दीसूत्र में अर्थागम की अपेक्षा से द्वादशांगी को नित्य, शाश्वतं एवं ध्रुव कहा गया है । शब्द रूप भागम का विच्छेद हो जाता है किन्तु उस आगम म प्ररूपित अर्थ का कदापि विच्छेद नहीं होता। इस प्रकार धर्म अपने मौलिक रूप में सनातन है-परिवर्तन से रहित है और समस्त तीर्थकर उसी के स्वरूप का प्ररूपण करते हैं । 'मूलः-तिविहेण विपाण मा हणे, प्रायहिते अणियाण सवुडे । एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अणागयावरे ॥११॥ . .. छाया:-त्रिविधेनापि प्राणान्मा हंन्यात्, श्रात्यहितोऽनिदानः संवृतः। . .. ... एवं सिद्धा अनन्तशः, सम्प्रति ये अनागत अपरे ॥ ११॥ '.. शब्दार्थः-तीन प्रकार से प्राणियों का हनन नहीं करना चाहिए। अपने हित में प्रवृत्त होकर तथा निदान रहित होकर संवरयुक्त बनना चाहिए । इस प्रकार अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में होते हैं और भविष्य में होंगे। भाष्यः-समस्त तीर्थकरों ने जिन गुणों का एक समान उपदेश दिया है, वे गुण कौन से हैं ? अथवा समस्त जिनों द्वारा उपदिष्ट सनातन धर्म का रूप क्या है ? इस प्रश्न का यहां समाधान किया गया है। . . . . . ... ... तीन प्रकार से प्राणियों की हिंसा-न करना, यह धर्म का प्रथम रूप है। तीन प्रकार से अर्थात् मन, बचन और काय से । तात्पर्य यह है कि किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाने का मन में विचार न आना, कष्टप्रद पवनों का प्रयोग न करना और शरीर से किसी को कष्ट न होने देना, यह अहिंसा महाप्रत धर्म का प्रथम रूप है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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