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________________ चौदहवां अध्याय यहां निरूपण किया गया है। सावध कर्मों में रत रहने वाले वे जीव अपने-अपने अनुष्ठानों के अनुरुप नरक आदि अशुभ गतियों में भ्रमण करते हैं । उनके किये हुए कर्म ही उन्हें ऐसे स्थानों में ले जाते हैं, ईश्वर श्रादि कोइ भिन्न व्यक्ति उन्हें कष्टकर स्थानों में नहीं पहुंचाता । इसके अतिरिक्त, कर्मोपार्जन करने वाला व्यक्ति, उन कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकता। मनुष्य प्राणी अपनी अनादि-अनन्त सत्ता को जानता हुश्रा भी व्यवहार म उस्ले शाखीकार-ला करता है। अस्वीकार का तात्पर्य यह है कि व्यवहार में उस स्वीकृति के अनुसार नहीं चलता। उसकी दृष्टि भूत और भविष्य से हटकर केवल क्षुद्र वर्तमान तक सीमित रहती है। वह वर्तमान के लाभालाभ की तराजू पर ही अपन कत्र्तव्य-श्रकर्तव्य को तोलता है । भविष्य में चाहे जो हो, जिस कार्य से वर्तमान में लाभ दिखाई देता है, वहीं कार्य उसे प्रिय लगता है । उसे भविष्य की कुछ भी चिंता नहीं रहती, मानो भविष्य के साथ उसे कोई सरोकार नहीं है। इस संकीर्ण भावना से प्रेरित होकर मनुष्य भविष्य की ओर से निरपेक्ष बन जाता है । अपने भविष्य को सुधारने की ओर लक्ष्य नहीं देता। .. ऐसे जीवों को यहां सावधान किया गया है। उन्हें समझाया गया है कि वर्तमान तक ही दृष्टि न दौड़ाओ। वर्तमान तो शीघ्र ही 'भूत' बन जायगा । श्राज का जो भविष्य है, वही कल वर्तमान बनेगा और उसी के साथ तुम्हें निबटना पड़ेगा। अतएव उस आगामी वर्तमान को विस्मरण न करो। जो लोग उसे विस्मरण करते हैं उन्हें विभिन्न प्रकार के नरक आदि यातनाओं से परिपूर्ण स्थानों का अतिथि बनना पड़ता है। जगत् में नाना प्रकार के जो दुःख दिखाई देते हैं, उनका मूल कारण दुःख भोगने वाला स्वयमेव है। जहां बीज पड़ता है वहीं अंकुर उगता है, इसी प्रकार जहां जिस श्रात्मा में अशुभ कर्मों का संचय होगा वहीं दुःखों की उत्पत्ति होगी। अतएक अपने किसी दुःख के लिए दूसरे को उत्तरदायी ठहराना घोर भ्रम है। न कोई किसी को दुःखी बना सकता है, न कोई किसी को सुखी बना सकता है। समस्त सुख-दुःख श्रात्मा के अपने ही व्यापारों के फल हैं । कहा भी है: स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निर्थकं तदा ॥ ' अर्थात् आत्मा ने जैसे कर्म किये हैं, उन्हीं का शुभ या अशुभ फल वह आप पाता है । यदि दूसरों का दिया हुश्रा फल दूसरा पावे तो उसके उपार्जन किए हुए कर्म निष्फल हो जाएँगे। . सदा इस सत्य का स्मरण रखते हुए अपने दुःख-सुख के लिए दूसरों को उत्तरदायी न ठहराओ । अरने दुःख के लिए किसी पर द्वेष न करो और सुख के लिए राग भाव धारण न करो । अन्यथा राग-द्वेष के वश होकर और अधिक पाप
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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