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________________ - - । ५०८ वैराग्य सम्बोधन सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप धर्म का यथार्थ स्वरूप समझो, क्योंकि इस प्रकार का उत्तम अवसर फिर मिलना कठिन है। पहले बतलाया जा चुका है कि मनुष्या जन्म कितना दुर्लभ है। मनुष्य जन्म का लाभ हो जाने पर भी कर्मभूमि, आर्य देश सुकुल में उत्पति, इन्द्रियों की परिपूर्णता और धर्म श्रवण, श्रद्धा का होना आदि उत्त रोत्तर दुर्लभ हैं। अतिशय पुण्य के प्रताप से जब यह सब सामग्री प्राप्त हो गई है तो बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? इस श्रपूर्व अवसर को पाकर बोध-लाभ करना ही चाहिए। कहा भी हैनिर्वाणादिसुखप्रद नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते, लव्धे स्वल्पमचारु कामजसुत्रं नो सेवितुं युज्यते। वैर्यादिमहोपलोधनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, त्मातु स्वल्पमदीप्ति काचशकलं किं साम्प्रतं साम्प्रतम् ?" ' अर्थात्-जिनेन्द्र भगवान् के धर्म से युक्त इस मानव भव को पा करके तुच्छ तथा नीरस कामभोगों का सेवन करना उचित नहीं है। वैडूर्य आदि मणियों से युक्तः समुद्र मिल जाने पर भी पिना चमक का-तुच्छ कांच का टुकड़ा लाना क्या उचित कहा जा सकता है ? यानी जिस प्रकार वैडूर्य आदि मणियों को छोड़कर कांच का टुकड़ा ग्रहण करना उचित नहीं है उसी प्रकार जिनधर्म का सेवन न करके विषयभोगों का सेवन करना भी उचित नहीं है। इस स्वर्ण--अवसर को जो यों ही बिता देते हैं अथवा जो जीव यह सोचते हैं कि-चलो अभी तो संसार के सुख भोग ले, फिर वृद्ध अवस्था आने पर धर्म की साधना कर लेंगे, उनका प्रमाद दूर करने के लिए कहा गया है-जो समय व्यतीत हो जाता है वह लौटकर नहीं श्राता । श्रायु प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है। यदि यह आयु समाप्त हो गई और धर्म का आचरण न किया तो रखनय की प्राप्ति होना अविष्य में अत्यन्त कठिन है। जो लोग धर्माचरण से भ्रष्ट होते हैं वे अनन्त काल: तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि अनन्त श्रात्मिक सुख की प्राप्ति करने के लिए मनुष्य भव ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। पुण्य के योग से यह साधन मिलगया है। ऐसी स्थिति में इस सुयोग का सदुपयोग करो । एक बार अगर यह अवसर हाथ से चला गया तो अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करना पड़ेगा और जन्म-मरण आदि की प्रबल वेदनाएँ सहन करनी पड़ेगी । एक बार मनुष्य पर्याय का क्षय हो जाने के पश्चात दूसरी बार उसकी प्राप्ति होना कितना कठिन है, यह बात समझाने के लिए शास्त्र कारोंने दस प्रान्तो की योजना की है। इन दृष्टान्तों से स्थूल बुद्धि वाले भी मानवजीवन की दुर्लभता की कल्पना कर सकते हैं। यह स्टान्त इस प्रकार है-- विप्रः माधितवान् प्रसन्नमनसः श्रीब्रह्मदत्तात पुरा। जेऽस्मिन् भरते ऽनिले प्रतिगृहं में भोजनं दापय ।।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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