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________________ तेरहवां अध्याय ५०५ भाष्यः-जीवन अनित्य है। उसके स्थिर रहने की सामयिक मर्यादा नहीं है। जल का वुवुद किसी भी समय, वायु निकलते ही नष्ट हो जाता है। जीवन भी श्वासोच्छ्वास रूप वायु के भागमन एवं निर्गमन पर निर्भर है । वह भी किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। अनेक प्राणी इसी प्रकार जीवन त्याग कर अचानक चल देते हैं। मनुष्य जीवनकी इस क्षणभंगुरता को भलीभांति जानता है, देख भी रहा है। फिर भी वह अपने जीवन पर विचार नहीं करता । मानों वह अनित्य एवं क्षणविनश्वरता का अपवाद है और उसने जीवित रहने का ठेका ले लिया है। मनुष्य अपने वर्तमान को देखता है और भविष्य के प्रति एकदम उपेक्षा की वृत्ति से काम लेता है । अगर कभी भविष्य की ओर देखता भी है तो इस दृष्टि से जैसे उसे सदा जीवित ही रहना है-मरने का अवसर उसके सामने उपस्थित ही ज होगा । अतएव वह सोचता है--यह मेस है, यह मेरा नहीं है । अर्थात अमुक वस्तु मेरी है और अमुक मेरी नहीं है। इस प्रकार बाह्य पदार्थों में प्रात्मीयता का आव स्थापित करता है । यह श्रात्मीयता की कल्पना दुःख का मूल कारण है। इसी से अनेक दुःखों की उत्पत्ति होती है। आत्मा का जीवन पर्यन्त साथ देने वाला शरीर भी जब आत्मा का अपना नहीं है-पराया है तो अन्य वस्तुएँ प्रात्मा की कैसे हो सकती हैं ? कहा भी है-एकः सदा शाश्वति को ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः॥ .. अर्थात्-सेरा आत्मा अकेला है, अजर-अमर अविनाशी है, स्वभावतः निर्मल है, चेतनामय है । दूसरे समस्त पदार्थ प्रात्मा से भिन्न-बाहर हैं । वे नाशशील हैं और कर्मोदय से प्राप्त हुए हैं, इस कारण आत्मा के अपने नहीं हो सकते । तथायस्यास्ति नैक्य वपुषाऽपि सार्द्ध, ___ तस्यास्ति किं पुत्र कलत्र मिः ११ पुथक्कृते चमणि रोम कूपाः, . कुलो हि.तिष्ठन्ति शरीर मध्येः ।। अर्थात-जिस आत्मा की शरीर के साथ भी एकता नहीं है यानी जो आत्मा जीवन पर्यन्त शरीर के साथ रहने पर भी शरीर से सर्वथा निराला है, उसकी पुत्र, मिन और पत्नी आदि प्रत्यक्ष से भिन्न दिखाई देने वाले पदार्थों के साथ एकता कैसे हो सकती है ? चमड़ी अगर हटा दी जाय तो शरीर में रोम कैसे रह सकते हैं १ . अर्थात् शरीर के साथ रोमों का संबंध चमड़ी के द्वारा होता है, अतएव चमड़ी शरीर हट जाने पर रोम स्वतः हट जाते हैं । इसी प्रकार पुत्र, कलत्र आदि के साथ . जो संबंध है वह शरीर के निमित्त से है। जव शरीर ही श्रात्मा से भिन्न है तो पुत्र मादि अभिन्न कैसे हो सकते हैं ?
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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