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________________ [ ५०२ ] कषाय वर्णन न तस्स माया वपित्रा व भाया, कालम्मि तम्ममहरा भवंति ॥ २३ ॥ छाया:-यथेद्र सिंह इव मृगं गृहीत्वा, मृत्युनरं नयति हि अन्तकाले । ... न तस्य माता वा पिता चा भ्राता, काले तस्यांशधरा भवन्ति ॥ २३॥ . शब्दार्थ:--जैसे सिंह हिरन को पकड़कर उसका अन्त कर डालता है, उसी प्रकार निश्चित रूप से मृत्यु आयु पूर्ण होने पर मनुष्य को परलोक में ले जाती है । उस समय उस मनुष्य की माता, उसका पिता अथवा भ्राता उसके दुःख में भागीदार नहीं होते। . भाप्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है । इस जीवन का अन्त अवश्य होता है, यह चात युक्ति या प्रमाण से सिद्ध करना आवश्यक नहीं है । लभी जीवधारी इसका अनुभव करते हैं। कौन नहीं जानता कि जैसे सिंह, हिरन को पकड़ कर तत्काल ही उसे जीवन हीन बना डालता है, उसी प्रकार मृत्यु मनुष्य को परलोक का अतिथि यना डालती है। मनुष्य अपनी जीवित अवस्था में जो द्रव्य आदि उपार्जन करता है, उसमें माता-पिता का भी भाग रहता है और भाई भी उसके हिस्सेदार रहते हैं । सभी कुटम्बी अपने योग्य हिस्सा लेते हैं । अगर कोई पुरुप अपने कठिन परिश्रम द्वारा उपार्जित, धन-दौलत का हिस्सा भाई आदि को नहीं देता तो भाई न्यायालय के दरवाजे खटम्नटाता है और न्यायालय के द्वारा अपना हिस्सा लेकर संतुष्ट होता है। अगर किली में इतना सामर्थ्य होता है तो वह न्यायालय तक जाने का भी कष्ट नहीं उठाता और स्वयं लड़ाई-झगड़ा करके, मारपीट कर अपना हिस्सा वसूल कर लेता है। ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों उदाहरण अनायास ही देखे जा सकते हैं । इस प्रकार धन-दौलत में भाग बॅटाने के लिए तो वे तैयार रहते हैं, पर जिन पापों का श्रावरण करके धनोपार्जन किया जाता है उन पापों में कोई हिस्सा नहीं लेता। पापों का वह फल अकेले उसी को भोगना पड़ता है। . अनेक लोग चोरी करके, डाका डाल कर, गांठ काट कर या धन के स्वामी का खून करके, और नाना प्रकार की धोखेबाजी करके धन कमाते हैं । इन कर्मों का फल कमी-कभी इसी लोक में मिल जाता है, क्योंकि कोई-कोई कर्म इस लोक में, कोई परलोक में और कोई भनेक जन्मों के पश्चात् अपना फल देता है। यगडांग में कहा है अस्ति च लोए अदुवा परस्था, समानो या नह अन्नदा चा। संसारमायल परं परं त, चंति य दुनियाणि ॥ अर्थात-कोई कर्म इसी जन्म में फल देते हैं, कोई दूसरे जन्म में देते हैं । कोई एक जन्म में फल देते हैं, कोई नेकदा जन्मों में देते हैं। कोई कर्म जिस तरह किया जाता है उसी तरह फल देता है, कोई दूसरी तरह से फल देता है। दुराचारी घुगर संसार में भ्रमण करते रहते देशीर ये एक कर्म का फल-दुःख भोगते समय
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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