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________________ तेरहवां अध्याय [ ४६४] छाया:-श्रुतानि मया नरकस्थानानि, अशीलानां च या गतिः। । बालानां ऋरकर्माणाम् , प्रगाढा यत्र वेदना ॥२१॥ ' शब्दार्थः-अन्त में नास्तिक सोचता है---जहां क्रूर कम करने वाले अज्ञानी जीवों को प्रगाढ़ वेदना होती है, ऐसे कुंभी, वैतरणी आदि नरक के स्थान मैंने सुने हैं और दुराचारियों की जो गति होती है वह भी मैंने सुनी -अर्थात् मैंने सुना है कि दुराचारियों को नरक में जाना पड़ता है और नरक में प्रगाद वेदना होती है। भाष्यः-जब विविध प्रकार की बीमारियों के कारण नास्तिक का बुद्धि-मद और काय-मद हट जाता है और इन मदों के हट जाने से उसकी इन्द्रियां और मन ठिकाने पाते हैं तब उसे श्रास्तिक गुरुनों द्वारा उपदिष्ट वा स्मरण श्राती हैं । वह सोचने लगता है कि निर्दय होकर नृशंस हिंसा आदि पाप का आचरण करने वाले, शील रहित अज्ञान जीवों की जो दुर्दशा होती है वह मैंने सुनी है । उन्हें नरक में जाना पड़ता है और नरक में अत्यन्त गाढ़ वेदना भोगनी पड़ती है। तात्पर्य यह है कि मैंने शील रहित होकर अनेक क्रूर कर्म किये हैं सो मुझे भी भीषण यातना वाले नरकों में जाना होगा। .. इस प्रकार का विषाद एवं पश्चात्ताप करने वाला वह नास्तिक अत्यन्त दया का पात्र बन जाता है । पर उस समय का पश्चाताप क्या काम आ सकता है ? जैसे छोड़ा हुश्रा तीर अधवीच से लौट कर हाथमें नहीं आ सकता, उसी प्रकार किये हुए 'कर्म विना फल भोगे, सिर्फ पश्चात्ताप करने से दूर नहीं हो सकते। ___ कहा भी है: मा होहि रे विसनो, जीव ! तुमं विमण दुम्मणो दीणो। ण हु चिंतिएण फिट्टइ, तं दुक्खं जं पुरा रयं । जह पचिसलि पायालं, अडविं व दरिंगुहं समुदं वा । पुवकयाउ न चुक्कास, अप्पाणं धायसे जइवि ॥ अर्थात्-हे जीव ! तू उदास, अनमना, दीन और दुःखी मत हो। जो दुःख तूंने पहले उत्पन्न किया द्वै वह चिन्ता करने से मिट नहीं सकता। चाहे तू पाताल में घुस जा, जंगल में छिपजा या किली गुफा में प्रवेश करजा या समुद्र में चलाजा, अथवा भले ही तू आत्मघात करले, पर पूर्वजन्म में उपार्जित किये हुए कर्म के फल से तू बच नहीं सकता। ' इस प्रकार यह स्पष्ट है कि नास्तिक जीवों का घोर अधःपतन होता है और उन्हें भीषण दुःखों को सहन करना पड़ता है । यहां जिन लोगों का मिथ्याष्टि-- नास्तिक शब्द से उल्लेख किया गया है उन्हें गीता में आसुरी प्रकृति वाले बतलाया है। उनका लक्षण इस प्रकार कहा है:-- अर्थात-" छल-कपट करके दूसरों को धोखा देना, मनमें कुछ हो और ऊपर से कुछ और ही बताकर किसी को उगना, जो गुण अपने में विद्यमान नहीं हैं
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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