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________________ तेरहवां अध्याय है, इस कथन के अनुसार हिंसा-प्रवृत्त नास्तिक भी नीचे गिरता चला जाता है और असत्य भीपण, मायाचार, पिशुनता, शठता श्रादि अनेक दुर्गुणों का पात्र बन कर मदिरा-मांस का सेवन करने लगता है। इन दुर्गुणों एवं मदिरा-माल के सेवन में वह इतना अधिक मृद्ध हो जाता है कि अपनी बुराई को बुराई नहीं समझता और उसे ही अपने लिए कल्याणकारी समझता है । रोगी शापने आपको रोगी समझता हो तो वह चिकित्सा का पात्र है। अगर वह अपने को नीरोग समझे या रोग को ही स्वस्थता समझ बैठे तो उसकी चिकित्सा नहीं हो लकली । नास्तिक अपनी करतूतों को कल्याणकारी समझने लगता है, इस कारण वह उनले विमुख होना नहीं चाहता और न विमुख होने का प्रयत्न करता है। पतने की यह पराकाष्टा है । इस अवस्था में उत्थान के लिए अवकाश नहीं रहता । इसी कारण शास्त्र कारने उसे बाल अर्थात् अंज्ञान कहा है। वह अचिकित्स्य भूल:-कायसा वयसा मत्तो, वित्ते गिद्धे य इस्थिसु । दुहंगो मलं संचिणइ, सिसुणागुव्व मट्टियं ॥ १६ ॥ छाया:-कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु।। द्विधा मलं सचिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ॥ १६ ॥ शब्दार्थः-वह नास्तिक काय से और वचन से गर्व युक्त हो कर, धन में और त्रियों में आसक्त होकर, राग द्वेष के द्वारा कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग कड़िा मिट्टी से लिपटा रहता है। भाष्यः-परलोक को स्वीकार न करने वाला नास्तिक, सर्व प्रथम हिंसा में प्रवृत्त होता है, हिंसा के पश्चात् असत्य भाषण आदि पाप उसके लिए बायें हाथ के खेल बन जाते हैं और वह मांस-मदिरा का सेवन करने में प्रवृत्त हो जाता है। यह निरूपण करने के पश्चात् उस्लके अधःपतन का आगे का क्रम यहां बतलाया गया है। . वह मन, वचन और काय से 'मत्त-उन्मत्त बन जाता है । मदिरा आदि के सेवन से उसकी तामस वृत्ति अत्यन्त उग्र हो जाती है और उसका फल यह होता है कि वह स्त्री संबंधी भोगों से तथा धन में अतीव पासक हो जाता हैं। जहां श्रासक्ति है-लोलुपता है-राम-है वहां द्वेष अवश्य पाया जाता है। राग और द्वेष की व्याप्ति निश्चित है। एक वस्तु के प्रति राग होगा तो उससे विरोधी. वस्तुओं के प्रति द्वेष का भाव अवश्यंभावी है। अतएव वह नास्तिक राग भार द्वेषदोनों के द्वारा सल अर्थात् कर्म रूप सैल का संचय करता है। जैसे शिशुनाग (अलसिया) मिट्टी से उत्पन होकर मिट्टी से ही लिपटा रहता है और सूर्य की गर्मी से मिट्टी खूख जाने पर घोर कष्ट पाता है, उसी प्रकार वह नास्तिक जन्म-जन्म में भयं
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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