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________________ ! ४८० कषाय वर्णन यहां यह आशंका की जा सकती है कि यदि मनुष्य अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं का समूल विनाश कर डालें तो सब बेकार, निरुद्योग, प्रवृत्तिहीन या निर्जीव से बन जाएंगे। इच्छाएं ही मनुष्य को प्रवृत्त करती है, वही प्रेरणा प्रदान करती है, उनके सहारे जगत् कार्य-व्यापृत होता है। इस संबंध में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि इच्छाएं प्राणी को प्रेरणा प्रदान अवश्य करती हैं, पर वह प्रेरणा पाप की प्रेरणा होती है। जो इच्छाएं मनुष्य को दिव्य पथ की ओर प्रेरित करती हैं, वे निस्सन्देह शुभ इच्छाएँ है, परन्तु उनका महन्त्र उतना ही है जितना विष का नाश करने के लिए विष का महत्व है और कांटा. निकालने के लिए झांटे का है। . इच्छाओं की यह वास्तविकता जान कर विवेकशील पुरुपों को तपस्या का नाचरण करना चाहिए। इसके बिना इह-पर लोक में सुख का अन्य साधन नहीं है। मूल:-अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गइपडिग्घाश्रो. लोहारो दुहरो भयं ॥८॥ 'छाया:-अधो व्रजति क्रोधन, मानेनाऽधमा गति । मायया गतिप्रतिघातः, लोमाद् द्विधा भयम् ॥ ८॥ शब्दार्थः-आत्मा क्रोध से अधोगति में जाता है, मान से अधम गति की प्राप्ति होती है, माया सुगति में बाधा पहुँचाती है और लोभ से दोनों भवों में भय रहता है। भाष्यः-चारों कषायों का स्वरूप प्रदर्शित करने के पश्चात् यहाँ कषायों का फाल बतलाया जारहा है। · क्रोध से यह जीव नरक आदि अधोगतियों का पात्र बनता है। मान कपाय मे अधम गति की प्राप्ति होती है। माया सद्गति रूपी द्वार में प्रवेश करने से रोकने बाली है और लोभ से वर्तमान जीवन तथा आगामी भव भयपूर्ण हो जाते हैं। क्रोध आदि कषायों का दुर्गति की प्राप्ति रूप फल यहां समान बताया गया है। इन कपायों की उत्पत्ति के स्थान भी समान ही हैं। श्री प्रज्ञापना सूत्र में कहा है 'कतिहि भंते ! ठाणेहिं कोहुप्पत्ति भवति ? गोयमा ! चउहि ठाणेहि कोहुप्पत्ती भवति, तंजहा-खेत्तं पडच, वत्थु पडञ्च, सरीरं पडुच्च, उवहिं पडुच्च ।। अर्थात-भवगन् ! क्रोध की उत्पत्ति कितते स्थानों से होती है ? (उत्तर) हे गौतम ! चार स्थानों से क्रोध उत्पन्न होता है- १) क्षेत्र से (२) वस्तु से (३). शरीर स और (४) उपधि से, इस प्रकार चार स्थानों से क्रोध उत्पन्न होता है। नारकी जीवों को नरक क्षेत्र से, तिर्यञ्चों के तिर्यञ्च क्षेत्र से क्रोध उत्पन्न होता है। किसी-किसी को सचेतन या अचेतन वस्तु के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति होती है। किसी को शरीर की कुत्सित प्राकृति देख कर क्रोध उत्पन्न होता है और किसी को उपधि-उपकरण के निमित्त से फ्रोध उत्पन होता है। इसी प्रकार मान, माया
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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