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________________ - . । ४७६ ] कषाय वर्णन का विश्वास दिलाने के लिए शपथ खाने की क्या आवश्यकता है ? . .. तात्पर्य यह है कि कस्तूरी की गंध स्वयं चारों दिशाओं में फैल जाती है और स्वयं ही लोग उसकी सुगंध से परिचित हो जाते हैं । इसी प्रकार गुण भी छिपे नहीं रहते। गुणों में भी एक प्रकार का सौरभ है जो अनायास ही दिगदिगंत में प्रसरित हो जाता है । गुणों को प्रकाशित करने के लिए विज्ञापन की अपेक्षा नहीं रहती। यही कारण है कि सद्गुणों से विभूषित उत्तम पुरुष कदापि अपने गुणों का वर्णन नहीं करते तथापि गुणश पुरुष उनके चरणों में लोटते हैं। सद्गुण पाकर मनुष्य में एक प्रकार की विनम्रता का भाव प्रवल हो जाता है। वह अपनी लघुता को भलीभॉति जानने लगता है। श्रतएव वह दूसरी के समक्ष भी अपनी लघुता या हीनता को ही प्रकट करता है। उसका यह लघुस्ता प्रदर्शन ही वास्तव में उसकी महत्ता का प्रदर्शक है। ऐसे व्यक्तियों के सामने दूसरों का मस्तक स्वतः नम्र हो जाता है। सत्कार-सन्मान की कामना करने वाले मनुष्य इन महात्माओं से ठीक विपरीत वृत्ति वाले होते हैं। उनमें सद्गुणों का सद्भाव नहीं होता। वह अपने विशुद्ध अन्तः करण का दूसरों पर प्रभाव नहीं डाल सकते । ऐसी अवस्था में उनके प्रति किसी को पूज्य भाव उत्पन्न नहीं होता और न कोई उनका सन्मान करता हैं । किन्तु इस परिस्थिति में उन्हें संतोष नहीं होता है । उन्हें पश चाहिए । उन्हें मान सन्मान चाहिए। वे पूजनीय बनना चाहते हैं। इन सब बातों की हवस जब उनके हृदय में अत्यधिक बढ़ जाती है, तब वे निर्गुण होने पर भी अपने श्रापको गुणी प्रकट करने के लिए अनेक प्रकार के मिथ्याडम्बर रचते हैं। भाँति-भाँति के माया जाल का सृजन करते हैं। अनृत भाषण करते हैं। इस प्रकार पापाचार एवं छलकपट के द्वारा वे अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण करना चाहते हैं। ' इन लव दुष्कृत्यों का मूल यश:कामना और सम्मान की भूत्र है । अतएव इनका त्याग करना ही परम कर्त्तव्य है। मूलः-कसिणे पि जो इमं लोगं, पडिपुण्णं दलेज इक्कस्स । तेणावि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥५॥ छाया:-कृत्स्नमपि य इमं लोर्क, प्रतिपूर्ण दधादेकस्मै । तेनाऽपि स न संतुष्येत्, इति दुःपूर कोऽयमात्मा ॥५॥ शब्दार्थ:-यदि एक मनुष्य को धन-धान्य से परिपूर्ण यह समस्त लोक दे दिया जाय तो उससे भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता। इस प्रकार आत्मा इतना असंतोपशील भाष्यः-लोभ कशायं का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने यहां यह बतलाया है कि यह संसारी आत्मा इतना असंतोपी है कि किसी भी अवस्था में उसकी इच्छाएं पूर्ण
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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