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________________ . तेरहवां अध्याय ४७३. ] अप्रत्याख्यानावरण नामक.द्वितीय कषाय के उदय से जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, किन्तु देशविरति की नहीं। . प्रत्याख्यानावरण नामक तृतीय कषाय के उदय से एक देश-विरती का लाभ होता है परन्तु सर्वविरति रूप चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। मूल गुणों का घात करने वाले कषायों के उदय से मूल गुण अर्थात् सम्यक्त्व, अणुव्रत तथा महाव्रत-की प्राप्ति नहीं होती और संज्वलन कषाय के उदय से यथा- ख्यातचारित्र का लाभ नहीं होता। - अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व को उत्पन्न नहीं होने देती, यह बतलाया जा चुका है, पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाय तो सम्यक्त्व का नाश हो जाता है। इसी प्रकार अन्य कषायों के विषय में समझना चाहिए। संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का बात करने के साथ अन्य चारित्रों में दोष ( अतिचार ) उत्पन्न करता है। कहा है सव्वे वि य श्रइयारा, संजलणाणं तु उदयनो होति। . अर्थात् समस्त अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं-अन्य कषाय तो मूल गुणों का समूल नाश करते हैं। मूलः-जे कोहणे होइ जगट्ठभासी, विशोसियं जे उ उदीरएजा। अंधे व से दंडपहं गहाय, अविनोसिए घासति पावकम्मी ॥२॥ . छाया:-यः क्रोधनो भवति जगदर्थभाषी, न्यपशमितं यस्तु उदीरयेत् । अन्ध इव स दण्डपथं गृहीत्वा, श्रव्यपशमितं घृष्यति पापका ॥२॥ शब्दार्थः-जो पुरुष क्रोधी होता है वह जगत् के अर्थ को कहने वाला अर्थात् कठोर एवं कष्टकर भाषण करने वाला होता है । और जो शान्त हुए क्रोध को फिर जागृत करता है वह अनुपशान्त पाप करने वाला पुरुष दंड लेकर-डंडे के सहारे मार्ग में चलने वाले अंधे पुरुष की भांति कष्ट पाता है। भाष्यः-प्रथम गाथा में सामान्य रूप से चारों कषायों को संसार-भ्रमण का कारण उल्लेख करके यहां सूत्रकार ने क्रोध के दोषों का दिगदर्शन कराया है। क्रोधंशील को अर्थात् जिसका स्वभाव क्रोध करने का है जो बात-बात में कुपित हो जाता है, वह ऐसी भाषा का प्रयोग करता है, जिससे दूसरों को महान् कष्ट होता है। अशुभ कर्मोदय से जीवों को जो बधिरता, अन्धता, लूलापन आदि
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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