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________________ तेरहवां अध्याय [ ४६e f है । बहुत्व की अपेक्षा से कपाय के चार भेद हैं । इसी प्रकार अन्य भेद भी समझना चाहिए । कषाय शब्द की एक और व्युत्पत्ति भी प्रचलित है । वह यह है सुह दुक्ख बहुसं, कम्मक्लेतं कसेदि जीवस्स । संसार दूरमेरं तेण कलाश्रोत्ति णं वैति ॥ अर्थात् जीव के सुख दुःख रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसार रूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्म रूपी खेत का कर्पण करता है, इसलिए इसे कषाय कहते हैं । कषाय शब्द की उल्लिखित व्युत्पत्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि काय कर्म का कारण है और वह संसार भ्रमण भी कराता है । कषायों के बिना संसारभ्रमण नहीं हो सकता और न बंध ही हो सकता है। कहा भी है--- "सकपायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यात् पुद्गलानादत्ते स बन्धः " अर्थात् जीव कपाय से युक्त होकर कार्माण वर्मणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बंध है । इससे भी स्पष्ट है कि बंध में कपाय प्रधान कारण है । यही नहीं, काय जीव के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का भी घातक हैं # 'अतएव उसका स्वरूप समझकर त्याग करना आत्म-श्रेय के लिए अत्यावश्यक है । कषाय के मुख्य रूप से चार भेद हैं:- (१) क्रोध ( २ ) मस्त ( ३ ) माया और ( ४ ) लोभ । ( १ ) क्रोध - क्रोध चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, उचित अनुचित का विवेक नष्ट कर देने वाला प्रज्वलत रूप आत्मा का परिणाम फोट कहलाता है । क्रोध की अवस्था में जीव उचित-अनुचित का भान भूल जाता है । वह यहा ता चाहे जो बोलता है और नाना प्रकार के घृणास्पद, अशोभनीय और हानिकारक काम कर बैठता है । क्रोध में एक प्रकार का पागल पन उत्पन्न कर देने का स्वभाव हैं । जैसे पागल मनुष्य यद्वा तद्वा बकने लगता है, वह अपनी वास्तविकता खो बैठता हैं, उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य भी विना विचार किये बोलता हैं और अपनी स्थिति को भूल जाता है । क्रोध में एक प्रकार का विष है और इसी कारण भोजन श्रादि करते समय विशेष की श्रावश्यकता प्रदर्शित की गई है । Fording पहले तो कोध के आवेश में मनुष्य अंट-सेट बोलता है और अकृत्य की भी कर बैठता है, पर जब क्रोध का उपशम होता है, चित्त में शान्ति का वि होता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है, तब अपने अनर्गल भाषण तथा अनुचित कार्य के लिए लज्जित होता है । किन्तु बहुत बार क्रोध के प्रवेश में ऐसे कार्य हो जाते हैं, जिन्हें शान्ति प्राप्त होने पर बदला नहीं जा सकता । क्रोधी मनुष्य, क्रोध से अत्यन्त साविष्ट होकर दूसरे मनुष्य पर प्रहार कर देता है, अथवा उसके प्राणों का
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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