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________________ चारहवाँ अध्याय [ ४६५ । छाछ के वर्ण, रस गंध और स्पर्श रूप में परिणत हो जाता है, अथवा जैसे स्वच्छ वस्त्र अमुक रंग के संयोग से उसी रंग श्रादि रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार कृष्ण लेश्या, नील लेश्या के योग्य द्रव्यों के संसर्ग से नील लेश्या के स्वरूप में, नील लेश्या के वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में परिणत हो जाती है। इस प्रकार का परिणाम न केवल कृष्ण लेश्या का अपितु प्रत्येक लेश्या का हो सकता है। इस प्रसंग में यह जान लेना आवश्यक है कि किस-किस लेश्या में कितने गुण स्थान होना संभव है ? इससे यह ज्ञात हो सकेगा कि लेश्याएं आध्यात्मिक विकास में कितना प्रभाव डाल सकती हैं। कृष्ण, नील और कापोत, लेश्याओं में आदि के छह गुणस्थान माने जाते है। इन छह गुणस्थानों में से चार गुणस्थानों की प्राप्ति के समय और प्राप्ति के पश्चात् भी यह तीन लेश्याएं हो सकती हैं, परन्तु पांचवां और छठा गुणस्थान इन प्रशस्त लेश्याओं के समय प्राप्त नहीं हो सकते। इन गुणस्थानों को प्राप्ति तेज, पन और शुक्ल लेश्या के समय ही हो सकती है। किन्तु इन गुणस्थानों की प्राप्ति होने के पश्चात्, जीवके परिणामों की शुद्धता कभी कम हो जाने पर उक्त शुभ लेश्याएं आ जाती है। यही कारण है कि किसी-किसी जगह गुणस्थान-प्राप्ति के समय की अपेक्षा, तीन अशुभ लेश्याओं में सिर्फ चार ही गुणस्थानों का प्रतिपादन किया गया है। तेजो लेश्या और पद्म लेश्या में अप्रमत्त संयत पर्यन्त सात गुणस्थान होते हैं। शुक्ल लेश्या तेरहवें गुणस्थाने तक रहती है। यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में कपाय का सर्वथा श्रभाव हैं, तथापि योग की सत्ता होने के कारण वहां उपचार से शुक्ल लेश्या स्वीकार की जाती है। इस कथन से स्पष्ट है कि कृष्ण श्रादि तीन अशुभ लेश्याओं का उदय होने पर सवंदेश या एकदेश चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती । अतएव चारित्र की कामना करने वाले पुरुषों को अशुभ लेश्याओं से दूर रह कर शुभ लेश्याओं की आराधना करनी चाहिए। मूल:-तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावं वियाणिया । अप्पसत्याग्रो वजिता, पसत्थाप्रोहिदिए मुणी॥१७॥ पाया:-तस्मादेशासां लेश्यानाम् अनुभावं विडाय अमरावास्नु पर्जयित्वा, परास्ना धिसिटेन मुनिः । १m शब्दार्थ:-इसलिए लेश्याओं के प्रभाव को जान करके मप्रसस्त लेश्याओं को त्याग कर मुनि प्रशस्त लेश्याओं को अंगीकार करें। भाष्यः-प्रशस्त और सप्रशस्त लेश्याओं का स्वरूप पहले त लाया जा चुका देमौर यह भी बतलाया जा चुका है कि समशस्त या धर्म मेश्याएं दुर्गति का
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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