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________________ लेश्या-स्वरूप निरूपणं - किसी लेश्या की उत्पत्ति को अन्तर्मुहूर्त हो जाने पर भी यदि उस लेश्या के नष्ट होने में अन्तर्मुहूर्त शेष न हो तो भी जीव परलोक-गमन नहीं करता । अर्थात लेश्या के नष्ट होने के अन्तिम समय में भी परलोक गमन संभव नहीं है, क्योंकि उत्पत्ति काल के प्रथम समय की भाँति नष्ट होने के अंतिम समय में भी लेश्या अस्थिर-सी रहती है, परिणत नहीं होती। इस प्रकार लेश्या की उत्पत्ति हुए अन्तर्मुहर्त जब व्यतीत हो जाता है अथवा लेश्या के नष्ट होने में जव अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तभी जीव परलोक जाता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्यों और तिर्यञ्चों को, अन्त समय में, जिस किसी भी शुभ या अशुभ गति में जाना होता है, उसी गति के अनुसार उसकी भावना मरने के अन्तर्मुहूर्त्त पहले अवश्य हो जाती है। वह भावना अकस्मात् नहीं होती, किन्तु जीव ने अपने जीवन में जैसे शुभ या अशुभ कर्म किये होंगे, और उनके अनुसार जिस आयु का बंध कर लिया होगा, उसी श्रायु के अनुसार उस जीव की अंतिम लेश्या हो जायगी। अनेक लोग इस भ्रम में रहते हैं कि जीवन भर चाहे जैसे कर्म किये जाएँ, जीवन भले ही हिंसा श्रादि पापों से परिपूर्ण व्यतीत किया जाय, घोर प्रारंभ और छोर परिग्रह में श्रासक्त रहकर समस्त समय यापन किया जाय, और धर्म सेवन की और क्षण भर के लिए भी ध्यान न दिया जाय, परन्तु अंतिम समय सुधार लेने से सारा जीवन काल सुघर जाता है । यही नहीं. अंत सुधारने से आगामी भव भी सुधर जाता है। ऐसे भ्रम में पड़े हुए व्यक्तियों का भ्रम इस विवेचना से दूर हो जाना चाहिए । जीवन के अंत में, वैसी ही भावना उत्पन्न होती है, जैसी गति में उसे जाना होता है। आयु कर्म अमिट है। उसका एक बार बंध हो जाने पर उसमें फिर परिवर्तन होने का अवकाश नहीं है। जिस जीव ने नरकायु का बंध किया है, उसके परिणाम मृत्यु के समय नरकगति के ही अनुकूल होंगे, देवगति के योग्य नहीं हो सकते ! और वे परिणाम भी मृत्यु होने से अन्तर्मुहूर्त पहले ही उत्पन्न हो जाते हैं। • लोक में कहावत हैं-'अन्त मता सो गता' अर्थात् अंत समय जैसी मती होती है, चैसी ही गति होती है यह लोकोक्ति सत्य है, पर यह समझ रखना चाहिए कि अंत में मति भी वैसी ही होती है, जैसे आयु कर्म बंध चुका हो । अतएव परलोक सुधारने के लिए सतत सावधान रहना चाहिए अंत समय के ही भरोसे न रहना चाहिए । ऊपर लेश्या के संबंध में जो कहा गया है वह मनुष्यों और तिर्यञ्चों के लिए ही संगत हो सकता है, क्योंकि मनुष्यों और तिर्यञ्चों की लेश्या ही परिवर्तन शील होती है। देवों और नारकों की कोई भी लेश्या जीवन पर्यन्त एक ही बनी रहती है-वह परिवर्तित नहीं होती। ऐसी स्थिती में जब उनका मरण काल पाता है तब उनकी लेश्या का अन्तर्मुहर्त शेष रहता ही है । अतएव चे जिस लश्या में होते हैं उसी लेश्या में परलोक गमन करते हैं और उसी लेश्या में पुनर्जन्म धारण करते हैं। उनके लिए केवल यह कहा जा सकता है कि वर्तमान भव संबंधी लेश्या का अन्तमुहर्त शेष
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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