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________________ [ ४४०. भाषा-स्वरूप वर्णन कंठ आदि शरीर में ही हो सकते हैं। श्राप ईश्वर को स-शरीर मानेगे तो पहले कहे हुए अनेक दोष आ जाएँगे। अगर अशरीर मानते हैं तो वह शास्त्र प्रणेता नहीं हो सकता । इस प्रकार ईश्वर कृत शास्त्र ईश्वर की सर्वज्ञता का साधक नहीं हो सकता। अगर 'अन्य पुरुष का रचा हुआ आगम ईश्वर की सर्वशता का समर्थक माना जाय, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह पुरुष सर्वज्ञ है या असर्वश ? अगर सर्वज्ञ है तो वह भी ईश्वर हो जायगा, फिर ईश्वर अनेक हो जायेंगे । यदि उसे अ. सर्वज्ञ माना जाए तो वचनों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जो स्वयं प्रसवंत है, वह हम लोगों के ही सदृश है । उसके वचनों पर श्रद्धा करने का कोई कारण नहीं है। इसके अतिरिक्त श्रापका आगम ईश्वर की सर्वज्ञता से विपरीत असर्वक्षता .. ही सिद्ध करता है, क्योंकि उसमें पूर्वापर विरोध की प्रचुरता । एक जगह लिखा है नहिंस्यात सर्व भूतानि । अथात 'किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' दूसरी जगह अहिंसा के इस विधान के विरुद्ध घोर हिंसापरक यज्ञों का विधान किया गया है। . एज जगह 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' अर्थात् निपूते को उत्तम गति की प्राप्ति नहीं होती, यह कहकर सन्तानोत्पादन की अनिवार्यता वतलाई है, दूसरी जगह कुमार ब्रह्मचारियों का सद्गति का प्राप्त होना कहा गया है । यथा अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् । _ दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥ अर्थात् कई हजार कुमार ( कुंवारे ) ब्रह्मचारी, अपने कुल की संतान उत्पन्न . किये बिना ही स्वर्ग:पहुंचे हैं। यानि अनेक परस्पर विरोधि विधान श्रापके आगम में विद्यमान है। इन आगमों का प्रणेता यदि सर्वन होता तो इस प्रकार की विरोधी बातें उनमें उपलब्ध सोही। इससे स्पष्ट है कि श्रापका भी आगम उसके कर्ता की सर्वज्ञता. प्रमाणिता नहीं करता। श्रतएव ईश्वर की सर्वक्षता सिद्ध नहीं होती। इसी प्रकार ईश्वर की नित्यता भी युक्ति संगत नहीं ठहरती। देव वाद के प्रक. रण में देव की नित्यता पर जिस प्रकार विचार किया है, उसी प्रकार यहां भी करना चाहिए। बरको एकान्त नित्य मानने वालों से यह भी पूछा जा सकता है कि जगत का निर्माण करना ईश्वर का स्वभाव है या नहीं? अगर निर्माण करना उसका स्वभाव है, तो ईश्वर की तरह उसका स्वभाव भी नित्य ही होगा और इस कारण वह सदैव जगत् की उत्पत्ति करता रहेगा-कभी समाप्ति नहीं करेगा। अगर कभी निमार्ण की क्रिया समाप्त करेगा तो उसका स्वभाव नष्ट हो जायगा और उस अवस्था में ईश्वर भी अनित्य ठहरेगा। ईश्वर को अनित्य मानने में क्या बाधाएं हैं, यह देव के
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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