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________________ - wnloadindincome ध्यारहवां अध्याय [ ४२१ अपराध करने पड़ते हैं और अधिकाधिक लशल्य होते जाने के कारण उनकी च्या. कुलता में वृद्धि होती रहती है। ___ इल प्रकार विचार करके किये हुए अपराध को किया हुश्रा ही कहना चाहिए। उसे छिपाने का किंचित् भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए और न उसे न्यून रूप में कहना चाहिए। . यहां यह प्रश्न किया जा लकता है कि खूनकारने किये हुए को किया हुश्रा कहने का उपदेश दिया सो तो ठीक है, क्योंकि अनेक जन किये दोष को नहीं किया कह देते हैं, पर नहीं किये को नहीं किया कहने के उपदेश की क्या आवश्यकता है ? कोई भी व्यक्ति नहीं किये हुए दोष को किया हुश्रा नहीं कहता है। इस प्रश्न का समाधान यह है कि कभी- कोई व्यक्ति अपने दोष-स्वीकार रूप गुण का अतिशय प्रकट करने के लिए न किये हुए सामान्य अपराध को भी किया हुश्रा कह सकता है, अथवा कोई पुरुष अपनी अप्रामाणिकता के प्रकट होने के भय से नहीं किये को किया कह देता है । अथवा तथाविध अवसर पाने पर चित्त शुद्धि आदि रूप संयम की आराधना न की हो तो भी उसका करना कहसकता है । इन सब बातों का निषेध करने के लिए सूत्रकार ने नहीं किये को नहीं किया कहने का विधान किया है। गाथा में 'आ६च्च' शब्द साभिप्राय है। उसके प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि यदि कोई पुरुष वारम्बार असत्यभाषण करता जाता है और बारम्बार अपने गुरु के समक्ष उसे प्रकट करता है तो भी उसके प्रकट करने का कोई मूल्य नहीं है । असत्य भापण न करने की पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए । फिर भी किसी प्रकार की निर्वलता श्रादि विशेष कारण से अगर असत्य भापण हो जाय तो उसकी शुद्धि के लिए गुरु से निवेदन करना चाहिए । गुरु महाराज उसकी शुद्धि के अर्थ जिस प्राय-. श्चित का विधान करें उसे सहर्ष स्वीकार कर पाप के उस संस्कार का समूल उन्मूलन कर देना चाहिए और भविष्य में ऐसा न होने देने के लिए सावधान रहना चाहिए । मूल:-पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। भावी वा जइ वा रहस्से, ऐव कुजा कयाइ वि ॥१४॥ सायाः-प्रत्यनीकं च बुदाना, याचाऽधवा कर्मणा। नाविधी यदिवारहसि, नैव कुर्यात् कदापि च ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-वचन से अथवा कर्म से, प्रकट रूप से अथवा गुप्त रूप से, कभी भी ज्ञानीजनों से विरुद्ध व्यवहार नहीं करना चाहिए। भाष्य-विशिष्ट श्रुत एवं संयम से विभूषित, यात्मज्ञानी महापुरुप बुद्ध अथवा शानी कहलाते हैं। उनके विरुद्ध व्यवहार करने का यहाँ निषेध किया गया है। पानी की वचन के द्वारा निन्दा करना, अर्थात् ज्ञानी को अशानी कहना,
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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