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________________ [ ४२४ ] भाषा-स्वरूप वर्णन इस प्रकार के विचारों से निन्दा और गालियों को सहन करके महापुरुष शान्त रहते हैं । उनके हृदय - लागर में अल्प मात्र भी क्षोभ नहीं होता । 1 सूत्रकार ने ' कर्ण-शर ' पद का प्रयोग करके वचनों की कठोरता एवं दुःखप्रदता पर भी प्रकाश डाला है । प्रकारान्तर से यह सूचित कर दिया है कि दुर्वचनों के प्रयोग से मनुष्यों को अत्यन्त आघात पहुंचता है । उनका प्रयोग करने से सत्यव्रत का ही नहीं वरन् अहिंसाव्रत का भी भंग होता है । अतएव ऐसे वचनों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए । फिर भी बिना किसी क्षोभ के, ऐसे वचनों को जो सहन कर लेते हैं वे महापुरुष असाधारण हैं अतएव पूज्य हैं - श्रेष्ठ हैं । मूलः - मुहुत्तदुक्खा उ हवंति कंटया, मया ते वि तो सुउद्धरा वाया दुरुत्तापि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधाणे महन्भयाणि ।। छायाः- मुहूर्त्तदुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः, प्रयोमयास्तेऽपि ततः सूद्दएः । वाचा दुरुक्तानि दुरुद्धराणि, वैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-लोहे के कंटक तो केवल मुहूर्त्त मात्र ही दुःख देते हैं और उसके पश्चात् सरलता से बाहर निकाले जा सकते हैं, किन्तु दुर्वचन रूपी कंटक बैर बढाने वाले हैं, महा-भयंकर हैं और उनका निकलना बड़ा कठिन हैं । भाष्य - पहली गाथा में वचनों का कंटक रूप में कथन किया है, यहां दोनों की तुलना करते हुए वचनों की अधिक दुःख -दायकता का उल्लेख किया गया है । . 'मुहूर्त्त' शब्द यहां अल्प काल का वाचक है । तात्पर्य यह है कि लोहे के कांटे शरीर में चुभ जाएं तो थोड़े समय तक ही कष्ट देते हैं और फिर सरलता से बाहर निकाले जा सकते हैं । मगर मुख से निकले हुए दुर्वचन अत्यन्त भीषण हैं । एक चार चुभने पर उनका निकलना बहुत ही कठिन है, क्योंकि वे शरीर में नहीं अपितु श्रन्तःकरण में चुभते हैं। लोहमय कांटों का प्रभाव वर्त्तमान जीवन में ही हो सकती है आगामी जन्म मैं नहीं, किन्तु वाणी के कंटक इस जन्म में भी वैर बढ़ाते हैं और श्रागामी जन्मों में भी । वचन जन्य वैर की परम्परा शरीर की समाप्ति हो जाने पर भी समाप्त नहीं होती । लोहमय कंटक स्थूल होने के कारण स्थूल शरीर के लिए ही भयकारी हैं, पर न्तु वाचनिक कंटक सूक्ष्म होने से सूक्ष्म श्रात्मा के लिए भी भीषण होते हैं । वचनों के दुष्प्रयोग से आत्मा के साथ जिन अशुभ कर्मों का बंध होता है, उनके फलस्वरूप श्रात्मा को नरक आदि दुःख रूप योनियों में जाना पड़ता है और वहां घोर व्यथाएँ सहनी पड़ती है । इस प्रकार लोहमय कंटकों की अपेक्षा वचनमय कंटकों को अधिक भयंकर, अधिक वैरवर्धक और अधिक काल तक स्थायी समझ कर, कभी उनका प्रहार नहीं करना चाहिए | किसी के प्रति कष्टकर वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए । निरवद्य 1
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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