SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - । ४१८ - भाषा-स्वरूप वर्णन शब्दार्थ:-असत्यामृषा भाषा तथा निर्दोष, कर्कशता रहित, संदेह न उत्पन्न करने . वाली सत्य भाषा बुद्धिमान् पुरुष को बोलनी चाहिए। भाष्यः-पूर्व गाथा में यह बतलाया गया था कि किस प्रकार की भाषा संयमी जनों को नहीं बोलनी चाहिए। उससे यह जिज्ञासा होती है कि यदि ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए तो कैसी बोलनी चाहिए? इसी प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि 'गांव आ रहा है' इत्यादि पूर्वोक्त स्वरूप वाली व्यवहार भाषा का संयमी जन प्रयोग करें। इसके अतिरिक्त जो सत्य भाषा पापजनक न हो, कठोर न हो और सुनने वालों के अन्तःकरण में संशय उत्पन्न न करे, ऐसी सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए। आगे स्वयं सूत्रकार ही इन भाषाओं के संबंध में विशेष कथन करने वाले हैं, अतएव यहां उसका प्रतिपादन करना आवश्यक नहीं है। मूलः-तहेव फरसा भासा, गुरुभूअोवघाइणी । . सच्चा विसा न वत्तव्वा,जो पावस्स भागमो ॥३॥ छाया:-तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतप घातिनी। सत्याऽपि सान वक्तव्या, यतः पापस्य अागमः ॥३॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! इसी प्रकार कठोर, अनेक प्राणियों का घात करने वाली सत्य भाषा भी बोलने योग्य नहीं है, जिससे पाप का आगमन होता है । भाष्यः-जिस भापा.के श्रवण से, श्रोता के अन्तःकरण को श्राघात लगता है वह परुष अर्थात् कठोर भ पा है। उसका स्वरूप सूत्रकार अगली गाथा में निरूपण करेंगे। इसके अतिरिक्त जिस भाषा से अनेक जीवों के घात होने की संभावना हो ऐसी सावध भाषा नहीं चोलना चाहिए । इस प्रकार कोई भापा सत्य भले ही हो अर्थात् तथ्य पदार्थ का निरूपण करती हो फिर भी यदि वह पापजनक है, उससे पाप की उत्पत्ति होती है, तो वह बोलने के योग्य नहीं है। मूलः-तहेव काणं काणेत्ति, पंडगं पंडगेति वा । वाहियं वा वि रोगित्ति, जेणं चोरोत्ति नो वए ॥४॥ छायाः-तथैव काणं काण इति, पराडकं पण्डक इति वा। व्याधितं वाऽपि रोगीति, स्तेनं चोर इति नो वदेत् ॥ ४॥ शब्दार्थः-इसी प्रकार काने को काना न कहे, नपुंसक को नपुंसक न कहे, व्याधि वाले को रोगी न कहे और चोर को चोर न कहे। भाष्यः-इस गाथा में सय यथार्थ भापा भी वोलने योग्य नहीं है, यह बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि काने को काना नहीं कहना चाहिए, नपुंसक को नपुंसक नहीं कहना चाहिए और रोगी को रोगी नहीं कहना चाहिए तथा चोर को चोर नहीं
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy