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________________ प्रमाद-परिहार तेरी श्रवण -शक्ति अर्थात् इन्द्रियों की शक्ति दिनों दिन कम होती जा रही है, इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद न कर । __ भाष्यः-शरीर की अनित्यता का सुन्दर और स्वाभाविक चित्र यहाँ खींचा गया है। सीधा अन्तस्तल को स्पर्श करने वाला, चित्त को प्रभावित करने वाला और सोने वालों की निद्रा भंग कर देने वाला यह सुन्दर चित्र है। शरीर की अनित्यता स्वयं अनुभव की जा सकती है। शिशु का जन्म होता है तब से लगाकर वाल-अवस्था, कुमार-अवस्था, नवयुवक-अवस्था, युवावस्था, प्रौढ़अवस्था, वृद्धावस्था प्रादि अनेक अवस्थाएँ यह शरीर अनुभव करता है। ये सब अवस्थाएँ स्थूल अवस्थाएँ हैं, जो सहज ही सब की दृष्टि में आ सकती हैं । मगर इन अवस्थाओं के बीच में भी अनेकानेक सूक्ष्म अवस्थाएँ श्राती और जाती रहती हैं। बालक के शरीर की वृद्धि और पुष्टता के लिए कोई समय नियत नहीं है। प्रतिक्षण वालक बढ़ता रहता है और पुष्ट होता रहताहै । इसी प्रकार यौवन अवस्था के पश्चात् शारीरिक शक्ति का ह्रास आरंभ होता है और प्रतिक्षण होता रहता है । जैसे प्रातःकालीन सूर्य का तेज मध्याह्न तक क्रमशः बढ़ता और मध्याह्न के पश्चात् क्रमशः क्षीण होता जाता है और अन्त में सूर्य ही श्रस्त हो जाता है, इसी प्रकार कम से क्षीण होता हुश्रा यह शरीर भी अन्त में नष्ट हो जाता है । सूर्य सदा काल उदित नहीं रह सकता, इसी प्रकार शरीर भी सदा टिका नहीं रह सकता। सूर्य अस्त होने पर घोर अंधकार व्याप्त हो जाता है, इसी प्रकार स्थूल शरीर का नाश होने पर मृत्यु रूपीअंधकार छा जाता है। - यह उदय और अस्त निसर्ग का निश्चल नियम है । अनादि काल से यह चला श्राता है और अनन्त काल तक चलता रहेगा । इसका कभी भंग नहीं हुआ। इसमें कभी परिवर्तन नहीं हुआ। जगत् में बड़े-बड़े शक्तिशाली पुरुष हो गये हैं, पर इस नियम को कोई भंग नहीं कर सका । अनन्त तीर्थकर हुए, अनन्त चक्रवर्ती राजा पट् खंड के अधिपति हुए कितने ही बड़े-बड़े सम्राट और बलशाली सेनापति हुए, पर अंत में किसी का शरीर टिका न रहा । जिनकी एक उंगली के एक इशारे मात्र से वड़े-बड़े वीरों के दिल दहल उठते थे, जो अपने को अपराजित समझे बैठेथे, जिनकी • धाक से सारा संसार काँपता था, वे आज कहाँ है ? अपने अपरिमित वल के अभिमान में चर रावण का अन्त वही हुश्रा जो एक जुद्र कीड़े का होता है। तात्पर्य यह है कि संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो अजर-अमर बना रह सकता हो । पल-पल में होने वाले परिवर्तन को देखते हुए भी मनुष्य अंधा बना हुआ है। वह अजर-अमर की तरह, भोगोपभोगों में मस्त होकर जीवन को व्यतीत कर रहा है। संसार के दूसरे सब मनुष्यों का अन्त आ जायगा, केवल मैं अनन्त काल तक ऐसा ही बना रहुँगा, ऐसा मानकर मानो सभी मनुष्य व्यवहार कर रहे हैं । यही मोह का प्रावल्य है। मोह के प्रवल उद्य से मनुष्य नेत्र होते हुए भी अंधा है, कान होते
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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