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________________ दलवा अध्याय . [ ३८७. छाया:-अहीनपञ्जेन्द्रियत्वमपि स लभते, उत्तमधर्म प्रतिहि दुर्लभा। कुतिर्थिनिपत्रको नमः, समय गौतम ! मा प्रसादीः ।। १ ।। शब्दार्थः हे गौतम ! वह जीव यदि परिपूर्ण पांचों इन्द्रियां प्राप्त कर ले तो उत्तम धर्म का श्रवण दुर्लभ है-श्रेष्ठ धर्म के तत्व का उपदेश पाना कठिन है, क्योंकि मनुष्य कुतीर्थियों की उपासना करने वाले देखे जाते हैं । इसलिए समय मात्र भी प्रमाद न करो। __ भाष्यः-पुण्य अधिक प्रबलतर हुश्रा और किसी जीव को, मनुष्यत्व, आर्यत्व और परिपूर्ण कार्यकारी इन्द्रियां भी प्राप्त हो गई तो भी धर्म-साधना के अन्तरायों का श्रन्त नहीं होता। क्योंकि जगत् में बहुतेरे मनुष्य कुतीर्थियों का सेवन करते हैं। - जिसके द्वारा तरा जाय या जो तारनेवाला हो उसे तीर्थ कहते हैं। कहा भी है तिजइ ज तेण तहिं, तो व नित्थं तयं च दवम्मि । सरियाईणं भागो निरवायो तम्मिय पसिद्ध ॥ गाथा का भाव ऊपर आ चुका है। जिसके सहारे तिरने योग्य वस्तु तिरती है-पार पहुँचती है, वह तीर्थ कहलाता है। सुविधा जनक नदी आदि का एक विशिष्ट भाग (घाट ) द्रव्यतीर्थ है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चार निक्षेपों के भेद से तीर्थ चार प्रकार का है। किसी वस्तु का, जिसमें तीर्थ का गुण न हो, 'तीर्थ' ऐसा नाम रख लेना नामतीर्थ है। किसी तदाफार अथवा अतदाकार वस्तु में 'तीर्थ' की स्थापना कर लेना स्थापना तीर्थ कहलाता है। नदी सरोवर आदि द्रव्य तीर्थ कहे जाते हैं, क्योंकि उनसे शरीर ही तिरता है अर्थात् शरीर ही इस पार से उस पार पहुँचता है । इसके अतिरिक नदी आदि शरीर के द्रव्यमल-वाा मैल को ही हटाता है। तथा नदी प्रक्रति कभी नहीं तिराती है, कभी नहीं तिराती-तैरने वाले को डुबा भी देती है। इन सब कारणों से नदी श्रादि द्रव्य-तीर्थ कहलाते हैं। भावतीर्थ का स्वरूप इस प्रकार है भावे तित्थं संघो, सुयविहियं तारश्नो तहिं साहू। ताणाइतियं तरणं तरिपव्वं भवसमुदीऽयं ॥ अर्थात्-संघ भावतीर्थ है। साधु तारने वाले हैं। सम्यग्दर्शन, शान और बारित्र रूप रतनय तिरने के साधन हैं और संसार रूपी समुद्र तिरने योग्य हैं। एकान्त रूप मिथ्या प्ररूपणा करने वाले सिद्धान्त के अनुयायियों का समूह कुतीर्य समझना चाहिए और उसकी स्थापना करने वाले फुतीर्थी हैं। जगत् के अनेक मनुष्य, मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, इन्द्रिय परिपूर्णता रूप कल्याण की सामग्री प्राप्त करके भी फुतीर्थीयों का सेवन करते हैं। उनका सेवन करने से कल्याण के बदले अकल्याण होता है। नास्तिक लोग श्रात्मा का अस्तित्व अस्वीकार करके खाने पीने और आन्दोपभोग करने की वृत्ति जागृत करते हैं और आत्मा को धर्म-मार्ग से हटा देते हैं। कोई लोग समस्त पदार्थों को क्षणिक मानते हैं । अतः किये हुए पुण्य पाप का फल
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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