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________________ [ ३७८ 1 . .प्रमाद-परिहार अपना सम्पूर्ण जीवन घोर साधना के लिए समर्पण करके दिव्य दृष्टि प्राप्त की थी। हमारे जीवन में न वह समर्थ साधना है, न तजन्य दिव्य दृष्टि के अद्भुत प्रकाश की एक भी किरण है। अपने इस असामर्थ का अनुभव न करके जो लोग एक मात्र अपनी अनुभूति को ही चरम मानते हैं, वे अंधकार में विचरते हैं और प्रकाश में प्राना नहीं चाहते। ___ क्या धर्म शास्त्र, क्या नीति शास्त्र, और क्या दूसरा कोई शास्त्र, सभी प्राप्त पुरुष के वचन-प्रामाण्य पर निर्भर होकर चलते हैं। अध्यात्म शास्त्र इन सब में गहन, अतिगहन शास्त्र है। उसमें कल्पना और तर्क से प्रायः काम नहीं चलता । उसमें अनुभूति की प्रधानता है। अनुभूति न तो अध्ययन से प्राप्त होती है. न वाद-विवाद से । उसका एक मात्र मार्ग साधना है। अतएव जब तक हम साधना से अनुभूतिलाभ न कर लें तब तक हमें प्राप्तजनों के वचनों के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए। पृथ्वी आदि में चेतना है, यह बात आप्त पुरुषों ने हमें बताई है । सर्वज्ञ ने अपने ज्ञान में उस चेतना का प्रत्यक्ष किया है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उसे उसी प्रकार स्वीकार कर व्यवहार करते रहे हैं। इसलिए हमें भी उली पर श्रद्धा रखकर तदनुसार व्यवहार करना चाहिए। शंका-यह ठीक है कि हमारा ज्ञान अत्यन्त सीमित है, हम किसी भी वस्तु को पूर्ण रूप ले नहीं जान पाते, फिर भी अगर कोई युक्ति इस सम्बन्ध में हो तो उस से श्रद्धा में स्थिरता आ जाती है। अन्य लोगों को भी प्रतीति कराई जा सकती है। क्या इस विषय में कोई युक्ति है ? । समाधान-पृथ्वी श्रादि में चेतना सिद्ध करने वाली युक्तियां हैं । वनस्पति में जीव है. यह बात तो आज निर्विवाद हो चुकी है। वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित यंत्रों से वनस्पति के अनेक चेतनामय भाव और कार्य सभी प्रत्यक्ष देख सकते हैं । अतएव वनस्पतिकाय की चेतनता को समझने के लिए उस वैज्ञानिक-सामग्री का अध्ययन करना चाहिए । पृथ्वीकाय में चेतना सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित युक्तियां दी जाती हैं (१) जैसे मनुष्यों और तिर्यंचों के शरीर के घाव भर जाते हैं, उसी प्रकार खोदी हुई स्त्राने स्वयं भर जाती हैं। (२, जैसे मनुष्य का शरीर बढ़ता है वैसे ही पृथ्वीकाय-पत्थर आदि बढ़ते हैं। स्वान से अलग हुए पत्थर नहीं बढ़ते हैं, जैसे मृत शरीर नहीं बढ़ता है। .. (३) जैसे बालक बढ़ता है उसी प्रकार पर्वत भी बढ़ते हैं। (४) मूत्राशय में कंकर बढ़ने से पथरी रोग होता है। . : (१) मछली के पेट में रहने वाले मोती एक प्रकार के पत्थर हैं और उनमें वृद्धि, . देखी जाती है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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