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________________ - - दसवां अध्याय [ ३७५ भाष्यः-कोई-कोई मनुष्य यह विचारते हैं कि यदि इस जीवन का अन्त अचानक ही हो गया तो भी हानि है ? अात्मा नित्य है, उसका कभी विनाश नहीं होता एक जन्म के पश्चात् पुनर्जन्म धारण करना ही पड़ेगा, तब उसी अागामी जन्म में शेष कार्य सिद्ध कर लेंगे। इस जन्म में विषयभोगों का सेवन करके भावी भव में आत्मकल्याण कर लेंगे। अभी क्या जल्दी है ? • इस भ्रान्ति युक्त विचारणा का निरसन प्रकृत गाथा में किया गया है। भगवान् कहते हैं-आगामी भव मनुष्य भव ही होगा, ऐसा कौन छद्मस्थ जानता है ? विशेष तया जो लोग यह जीवन विषय-वासनाओं के सेवन में, अर्थ संचय करने में, हिंसा श्रादि घोर पाप कर्म करने में, व्यतीत करेंगे, महारंभ और महापरिग्रह करके भोग लामग्री को एकत्र करने में दत्तचित्त रहेंगे उन्हें आगामी भव में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? आगामी भव की बात रहने दीजिए, उन्हें तो चिरकाल में भी मनुष्य भव प्राप्त होना कठिन है। इस प्रकार के भोगी प्रमादी जीव आगामीभव में मनुष्यत्व से ही वंचित नहीं रहते किन्तु उन्हें अपने किए हुए कर्मों के भयंकर फल भी भुगतने पड़ते हैं । नरक गति तथा तिर्यंच गति की घोर यातनाएँ उन्हें सहनी पड़ती है । इन भवों में मुक्ति की साधना भी नहीं हो सकती । सिवाय मनुष्यभव के, अन्य किसी भी भव में जीव अप्रमत्त अवस्था नहीं प्राप्त कर सकता। देवगति और नरकगति में अधिक से अधिक चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त होता है और तिर्यञ्च गति में, क्वचित् पंचम गुणस्थान की उपलब्धि हो सकती है। मुक्ति की साधना के लिए एक मात्र मनुष्यभव ही साधन है। अतएव इस विचार का त्याग करके, कि आगामी भव में आत्मकल्याण करलेंगे, इस जन्म को प्रमत्त होकर नहीं गवाना चाहिए । चिरकाल तक चौरासी लाख जीव योनियों में भ्रमण करने के पश्चात, भव-भव में अनेक पुण्य करने से इसकी प्राप्ति हुई है। प्रात्महित का यह सर्वश्रेष्ठ अवसर है। विवेक-बुद्धि, अविकल इन्द्रियां, सत्कुल में जन्म, सद्धर्म का श्रवण, सुगुरुओं की संगति, आदि अनुकूल निमित्त पाकर अवसर नहीं चूकना चाहिए । इसलिए एक समय मात्र का भी प्रमाद न करो। मुल:-पुढविकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा एमायए ॥५॥ छाया:-पृथ्विकायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संबसेत। कालं संख्यातीतं, समयं गौतम ! मा प्रसादीः ॥५॥ शब्दार्थः हे गौतम ! पृथ्वीकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट असंख्य काल तक वहाँ रहता है, इस लिए समय मात्र का भी प्रमाद न करो।। भाप्यः-मनुप्यभव दुर्लभ है, यह सामान्य रूप से अनन्तर गाथा में कहा गया था । उसीको विस्तार से समझाने के लिए अब यह बतलाया जाता है कि जीव किस-किस काय में जाकर कितना-कितना समय यहां व्यतीत करता है ? इस
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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