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________________ दसवां अध्याय [ ३७३ ] सकते तो औरों की कौन-सी बात है ! सामान्य जन किस गिनती में हैं ? संसार की समस्त सम्पत्ति, विशाल लाम्राज्य, वृहत् परिवार, सभी कुछ यहां का यहां रह जाता है और जीव अकेला-एकदम अकेला, पर अपने किये हुए कर्मों की पोटली लाद कर, महाप्रयाण के लिए चल पड़ता है । कौन उस समय उसकी सहायता करता है ? ऐसे श्रनित्य, अध्रुव, अस्थायी, क्षणभंगुर जीवन को पा करके जो प्रमाद का सेवन करते हैं, अपने अनमोल जीवन-काल को विषय-भोग आदि कुत्सित कार्यों में व्यतीत करते हैं, जीवन की सफलता के लिए जो कभी प्रयत्न नहीं करते, वे नेत्रों के सद्भाव में भी अंधे हैं । वे संज्ञी होते हुए असंज्ञी के समान हैं । चेतनावाले होने पर भी जड़ है । वे अपने जुद्र वर्तमान के लिए अनन्त भविष्य को दुःखपूर्ण बनाते हैं। चिन्तामणी को खोकर बदले में पत्थर का टुकड़ा लेना चाहते है। वे कल्पवृक्ष को उखाड़ कर एरंडकी स्थापना करते हैं। वे अविवेकी है, अकुशल है, अज्ञान हैं। जो महापुरुष जीवन की अल्पकालीनता का विचार कर के उसके सहारे , शाश्वत सुख प्राप्त करने के प्रशस्त प्रयास में रत रहते हैं, उनका जीवन सफल है। वे धन्य हैं, मान्य हैं। उन्होंने जगत् के समक्ष उज्ज्वल उदाहरण उपस्थित किया है। अतएव भगवान् कहते हैं--हे गौतम ! तुम एक लमय का भी प्रमाद मत करो । अपने जीवन का प्रत्येक समय लोकोत्तर धर्म की साधना में व्यतीत करो। अप्रमत्त भाव में विचरो । श्रात्मा के साथ मन का सान्निध्य साधों । आत्मा रूपी निर्मल सरोवर में मन को डुबोए रहो । उसे बाहर निकालकर काम के कीचड़ में सत फंसाओ। मूल:-इइ इत्तरअम्मि पाउए, जीवियए बहुपचवायए। विहुणाहि रयं पुरे कडं, समयंगोयम ! मा पमायए।३। छायाः-इतीत्वर श्रायुधि, जीवितके बहुप्रत्यवायके । विधुनीहि रजः पुराकृतम, समयं गीतम ! मा प्रमादीः ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:-निरपक्रम-आयु अत्यन्त अल्पकालीन है, और सोपक्रम आयु अनेक . प्रकार की विघ्न-बाधाओं से परिपूर्ण है । अतएव पूर्वोपार्जित कर्म रूपी रज को धो डालो, हे गौतम ! समय मात्र का प्रमाद मत करो। __ भाष्यः-शास्त्रकार फिर जीवन की अल्पकालीनता का वर्णन करते हुए प्रमादपरिहार की प्रेरणा करते हैं। प्रकृत गाथा में श्रायु को इत्वर अर्थात् स्वल्प समय स्थायी और जीवन को अनेक विघ्न-बाधाओं से व्याप्त बतलाया गया है। वस्तुतः श्रायु का सद्भाव हो जीवन कहलाता दें, अतएव दोनों में के ई मौलिक अन्तर नहीं है, फिर भी यहां दोनों का जो पृथक् उल्लेख किया है वह सोपक्रम और निरूपक्रम थायु काभेदप्रदार्शत करने के लिए। आयु का तात्पर्य या निरूपक्रम आयु है और जीवन का अर्थ सोपक्रम प्रायु है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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