SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दलवां अध्याय [ ३७१ ] काल के सब से छोटे अंश को 'लमय' कहते हैं । यह जिनागम में प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द है । समय इतना सूक्ष्मतम कालांश है कि साधारणतया उसकी कल्पना करना भी अशक्य है। एक बार पलक मारने में अगर असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं तो एक 'समय' का ठीक-ठीक परिमाण कैसे जाना जा सकता है ! यह सूक्ष्मतर कालांश भी हमारे जीवन के वनाव-बिगाड़ में बड़ा भाग लेता है। जिसके अन्तःकरण में एक समय के लिए भी अशुचि विचार का संचार होता है, वह अपनी निर्सलता में एक धब्बा लगा लेता है। वह अशुचि विचारों के प्रवेश के लिए अपने हृदय के किवाड़ खोल देता है। अशुचि विचारों के लिए एक मार्ग वन जाता है, जिसके द्वारा वे पुन:-पुनः वहां आते और जाते हैं। धीरे-धीरे वह अन्तःकरण उन दुर्विचारों का निवास-केन्द्र बन जाता है और अन्तःकरण की शुचिका का अन्त आ जाता है। एक 'समय' मात्र के लिए आये हुए अशुचि विचार अन्तःकरण में क्या-क्या उत्पात मचाते हैं, यह अब सहज ही समझा जा सकता है। शास्त्रकार कहते हैं कि जीव एक समय में अनन्तानन्त कर्म-परमाणुओं का बन्ध करता है। कहा भी है सिद्धाणंतिमभागं, अभवसिद्धादणंत गुणमेव । समयपवद्धं बंधदि, जोगवसादो दु विसरित्थं ॥ । अर्थात्-जीव, अनन्तानन्त प्रमाण वाली सिद्ध-जीवराशि के अनन्तवें भाग और अनन्त प्रमाण वाली अभव्य-जीवराशि से अनन्त गुणा अधिक समय प्रबद्ध का एक समय में बंध करता है। योग की तीव्रता होने पर इससे भी अधिक कर्म-प्रवद्धों का बंधन हो सकता है। एक समय में अनन्त समय प्रवद्धों का बंध होता है और एक-एक समय प्रबद्ध में असंख्य-कर्म परमाणु होते हैं। यदि किसी पुरुप के हृदय में एक समय के लिए भी अशुभ विचारों का उदय होता है तो वह इतने बहुसंख्यक अशुभ कर्म परमाणुओं का बंध करता है और यदि शुभ विचारों का उदय होता है तो इतने ही शुभ कर्मपरमाणुओं का बंध करता है। अनन्त शुभ या अशुभ फर्म-परमाणुओं का बंध एक 'समय' पर निर्भर है, पर इतने में ही 'समय' का महत्व पूर्ण नहीं हो जाता । बंधे हुए वे कर्म जीव पर अपना चिरकाल तक प्रभाव डालने रहते हैं और उनकी संतति निरन्तर चलती रहती है। यह सब एक 'समय' मात्र की भली-बुरी कमाई है। इससे यह समझना कठिन नहीं रहता फि एक 'समय' भी प्रमाद करने का निषेध भगवान् ने क्यों किया है ? वास्तव में एक 'समय' भर का प्रमाद अनेक भव-भवान्तर में जीव को दुःखदायक होता है। इसलिए प्रति समय अप्रमत्त भाव में विचरना चाहिए। गाथा में रात्रि शब्द उपलक्षण है । उससे दिन-रात का ग्रहण होता है । अथवा पनि शब्द सामान्य रूप से काल-वाचक यहां विवक्षित है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy