SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नववा अध्याय [ ३४७ ] र्जित किये हुए अशुभ कर्मों का जब दुःखमय फलं भोगने का अवसर प्राता है तब कुल की कोई भी विशेषता काम नहीं पाती । अतएव सच्चा शरण जिसे चाहिए उसे ज्ञान एवं चारित्र का ही उपार्जन करना श्रेयस्कार है । विद्या और आचरण जीव का संसार संबंधी समस्त दुःखों से उद्धार करने में समर्थ हैं-इन्हीं से जन्म, जरा,मरण की व्याधि दूर हो सकती है। जाति और कुल का अभिमान करने वाले इन दुःखों से बचने के बदले और अधिक दुःख के भागी होते हैं । जाति एवं कुल का अभिमान, नीच जाति एवं नीच कुल में ले जाता है। ऐसा समझकर साधु को अपनी जाति तथा कुल का मद नहीं करना चाहिए। जो साधु गृहस्थ दशा का त्याग करने के पश्चात् भी गृहस्थ सरीखे काम करता है, वह संसार से मुक्त होने में समर्थ नहीं हो सकता। अस काय का आरंभ करना, सचित्र फल-फूल आदि का भक्षण करना, अग्नि काय का प्रारंभ करना, सचित्त जल का उपयोग करना, स्नान करना, आदि गृहस्थ के कर्तव्य हैं । जो व्यक्ति गृहस्थी को त्याग चुका और त्यागी जीवन में प्रविष्ट हो चुका है, वह भी यदि इन सावध कार्यों को करता रहे-इनसे विरत न हो, तो उसका त्यागी जीवन निरर्थक है-नाम मात्र का है । उस से कुछ भी लाभ होने की संभावना नहीं की जा सकती। अतएव गृहस्थावस्था का त्याग करके, दीक्षा लेने के पश्चात् साधु को गृहस्थोचित समस्त कार्यों का त्याग करना चाहिए और सर्वथा निरवद्य व्यापार में लीन हो कर श्रात्मकल्याण के लिए, लम्यक् ज्ञान एवं चारित्र का उपार्जन करना चाहिए । मुनि-जीवन एक नवीन जीवन है, नवा जन्म है, ऐसा समझ कर अपनी जाति का, कुल का, पद का, स्वजन भादि का संस्कार त्याग कर एक अपूर्व अवस्था का अनुभव करना चाहिए । जैसे पूर्व जन्म की किसी वस्तु से इस जन्म में संबंध नहीं रहता, उसी प्रकार गृहस्थावस्था के साथ साधु अवस्था का तनिक भी संबंध नहीं रखना चाहिए । ऐसा करने वाला मुनि मुक्ति का पात्र होता है। खूल:-एवंण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवंभिक्खु विउक्कसेजा। .. अहवाविजे लाभमयावलित्ते,अन्नं जणं खिंसति बालपने॥१५॥ छाया:-एवं न सभवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञया भित्तुः व्युत्कपेत् । अथवाऽपि यो लाभमदावलियः, अन्य जनं खिपति वालप्रज्ञः ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-जाति तथा कुल भ्रादि का अभिमान करने वाला साधु समाधि को प्राप्त नहीं होता है। जो भिक्षु प्रज्ञावान होकर अभिमान करता अर्थात् अपनी बुद्धि का मद करता है अथवा लाभ-सद से युक्त होकर दूसरों की निन्दा करता है वह भी समाधि को प्राप्त नहीं होता। .. भाष्यः-इससे पूर्व की गाथा में जातिमद और कुलमद् की निस्सारता यता
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy