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________________ [ ३४४ । साधु-धर्म निरूपण आहार जीवन में एक महत्वपूर्ण वस्तु है । संयम की साधना और विराधना बहुत अंशों में श्राहार पर भी निर्भर है। लोक में कहावत है- 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन' अर्थात् भोजन का मानसिक विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन सब बातों को लक्ष्य करके शास्त्रों में साधु के लिए अनेक विधि-विधान किये गये हैं। जिज्ञासु पाठकों को विस्तार जानने के लिए दशकालिक सूत्र देखना चाहिए। यहां सिर्फ दिग्दर्शन कराया गया है । इस प्रकार मुनि मधुकर-वृत्ति से निर्दोष आहार ही स्वीकार करते हैं। मूलः-जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिनो न समुक्कसे । एव मन्नेसमाणस्स, सामण्णमणुचिट्ठई ॥१२॥ छायाः-यो न वन्देत् न तस्मै कुप्त्, वन्दितो न मुकर्षेत् । ___एवमन्देपमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥ १२॥ शव्दार्थ-यदि कोई गृहस्थ साधु को वन्दन न करे तो उस पर कोप न करे। अगर केई वन्दना करे तो साधु अभिमान न करे । इस प्रकार अपमान और मान की वासना से रहित होकर गवेषणा करने वाले साधु का साधुत्व ठहरता है। भाष्य--मुनि के प्राचार का विवेचन करते हुए शास्त्रकार ने यहां मुनि को समता भाव रखने का उपदेश दिया है। अगर साधु को कोई गृहस्थ श्रद्धा एवं भक्ति से प्रेरित वन्दना-नमस्कार न करे तो साधु को कुपित नहीं होना चाहिए । उस समय साधु को ऐसा विचार करना चाहिए कि-'में दूसरों से वन्दना-नमस्कार कराने के उद्देश्य से संयम का पालन नहीं कर रहा हूं। कोई वन्दना करे तो मुझे क्या लाभ है ? वन्दना न करने से मेरे संयम का क्या बिगड़ता है ? प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रवृति करता है। मुझे मान-प्रतिष्ठा की भूख नहीं है। ऐहलोकिक लाभ के मूल्य पर मैं अपना अमूल्य संयम क्यों लुटने दूं? जैसे चिन्तामणि, फूटी कौड़ी के बदले नहीं दिया जा सकता, उसी प्रकार संयम लौकिक गौरव के लिए नहीं बिगाड़ा जा सकता। अगर कोई साधारण गृहस्थ या राजा श्रादि विशिष्ट पुरुष साधु को वन्दना करे तो साधु अभिमान न करे । ऐसे समय साधु यह विचार करे कि गृहस्थ मुझे · · संयमी समझकर नमस्कार करते हैं, पर मेरे संयम में कहीं कोई त्रुटी तो नहीं है ? यदि कोई त्रुटि संयम में होगी तो मुझे मायाचार का दोष लगेगा। इस प्रकार अपनी · त्रुटि का विचार करके संयम की महत्ता का विवार करे कि-धन्य है यह संयम, जिसका पालन अनादि काल से तीर्थकर आदि महापुरुष करते आये हैं, और जो मुक्ति का एक मात्र द्वार है। मेरा बड़ा सौभाग्य है कि गुरु महाराज की दया से मुझे भी इसकी प्राप्ति हुई है । गृहस्थ लोग मेरे शरीर को नहीं किन्तु संयम को वन्दना करते हैं, संयम के प्रति अपना आदरभाव व्यक्त करते हैं, अतएव संयम ही सार है। वही आदरणीय है, वही नमस्करणीय है, वही वन्दनीय है, वही पूजनीय है।'
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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