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________________ नवाँ अध्याय [ ३४१ ] ( १ ) हाकम्म - सामान्य रूप से किसी साधु के उद्देश्य से तैयार किया हुआ आहार देना श्राहाकम्म दोष है । ( २ ) उद्देसिय-किसी विशेष साधु के निमित्त बनाया हुआ आहार देना ! (३) पूइकम्मे – विशुद्ध आहार में आहाकम्मी आहार का थोड़ा सा भाग मिल जाने पर भी उसे देना । ( ४ ) मी सजाए - अपने लिए और साधु के लिए सम्मिलित बनाया हुआ आहार देना | ( ५ ) ठवरणा - साधु के निमित्त रख छोड़ा हुआ आहार साधु के श्राने पर देना । (६) पाहुडियाए - साधु को आहार देने के लिए मेहमान की जीमनवार श्रागे पीछे करके आहार देना । (७) पार - अंधेरे में प्रकाश करके आहार देना । (८) कीप - मोल से खरीदकर साधु को आहार देना 1 (६) पामिचे - साधु के निमित्त किसी से उधार लेकर आहार देना 1 (१०) परिपहए - साधु के लिए सरस - नीरस वस्तु की अदला बदली करके साधु को आहार देना । ( ११ ) अभिडे - किसी अन्य ग्राम-नगर से साधु के सामने लाकर आहार देना । (१२) उभिने - भूह रक्खे हुए या मिट्टी, चपड़ा आदि से छापे हुए पदार्थ को उधार कर आहार देना । - ( १३ ) मालाहडे - जहां ऊपर चढ़ने में कठिनाई हो वहां से उतार कर श्राहार देना या इसी प्रकार नीची जगह से उठाकर श्राहार देना । (१४) श्रच्छ - निर्बल पुरुष से छीना हुआ - अन्याय पूर्वक ग्रहण किया हुआ आहार साधु को देना । 1 ( १५ ) श्रणिसिट्टे - साझे की वस्तु साझेदार की सम्मति के बिना देना । ( १६ ) अज्झापरए - अपने लिए रांधते हुए साधु के लिए कुछ अधिक रांध कर देना । साधु के द्वारा लगने वाले आहार संबंधी दोष उत्पादना दोष कहलाते हैं ! उनके नाम इस प्रकार है- (१) घाई (२) दूई (३) निमित्ते (४) श्राजीवे (५) वणीमगे (६) तिमिच्छे (७) कोह (८) माण (६) माया (१०) लोभ (११) पुर्विव पच्छासंथव (१२) चिज्जा (२३) मंत (१४) चुन्न (१५) जोग (१६) मूलकम्म | लेना । ( ९. घाई - गृहस्थ के बाल-बच्चों को धाय की तरह खेलाकर आहार लेना । (२) दूई - गृहस्थ का गुप्त या प्रकट संदेश उसके स्वजन से कहकर श्राहार
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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