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________________ [ ३३४ ] .. साधु-धर्म निरूपण ‘शब्दार्थ:--जीव मात्र के रक्षक ज्ञातपुत्र श्री महावीर ने, संयम और लज्जा के हेतु धारण किये हुए वस्त्र, पात्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है। उन्होंने मूछी को अर्थात् ममता को परिग्रह कहा है, ऐसा महर्षियों ने कहा है। भाष्य:-भोजन-सामग्री एक रात भी अपने पास न रखने वाले मुनियों को वस्त्र-पात्र-कस्बल आदि रखने पर भी दोष नहीं लगता । इसका कारण यहां स्पष्ट रूप से शास्त्रकार ने प्रदर्शित किया है । बह यह है कि वस्त्र- पात्र आदि परिग्रह नहीं है, क्योंकि साधु में उनके प्रति मूच्छी नहीं है । भगवान महावीर स्वामी ने सूच्छी भाव को ही परिग्रहं कहा है। तात्पर्य यह है कि जहां ममता है, राग है, लोलुपता है वहां वाह वस्तु का संसर्ग हो चाहे न हो पर वहां परिग्रह अवश्य है। जिसके हृदय ले ममत्व नहीं गया वह ऊपर ले अकिंचन होने पर भी परिग्रही है। इसके विपरित, जिलके अन्तःकरण में लेशमात्र भी ममत्व भाव नहीं है, वह संयम की लाधना के लिए चाह्य उप-करणों को ग्रहण करने पर भी परिग्रही नहीं होता। ममत्व के अभाव में यदि वाह्य वस्तु के संसर्ग मात्र को परिग्रह माना जाय तो कोई भी मुनि निष्परिग्रह नहीं हो सकेगा, क्योंकि अन्य बाह्य पदार्थों का त्याग कर देने पर भी.शरीर का संसर्ग होने से परिग्रह भी विद्यमान रहेगा। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के साथ भी सब का संसर्ग अनिवार्य है। फिर न तो कोई अपरिग्रह महावत हो सकेगा और न मुनि पद ही संसार में रहेगा। मुनि पद के अभाव में मुक्ति का भी अभाव हो जायगा। इन संब दोषों का निवारण करने के लिए यही मानना युक्ति संगत है कि जहां ममत्व है वहां परिग्रह है और जहां ममत्व का अभाव है वहां परिग्रह का भी प्रभाव है। मुनि जो धर्मोपकरण रखते हैं, उनमें उन्हें ममत्व नहीं होता। उपकरणों के प्रति प्राणमात्र भी राग उनके अन्तःकरण में उदित नहीं होता, अतः वे उपकरणों का उप करते हए भी परिग्रही नहीं है। इस कथन से पूोलिखित शंका का समाधान भलीभांति हो जाता है। मूलः-एयं च दोसं दहणं, नायपुत्तेण भासियं । सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयणं ॥८॥ . छायाः-एतं च दोषं दृष्ट्या, ज्ञात पुत्रेण भाषितम् । सर्वाहारं न भुञ्जन्ति, निन्था रात्रिभोजनम ॥ शब्दार्थः-ज्ञातापुत्र भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त दोषों को देखकर निर्ग्रन्थ रात्रि में सब प्रकार का आहार नहीं भोगते हैं। भाष्यः-पांच महाव्रतो का स्वरूप प्रतिपादन करने के पश्चात् सूत्रकार यहां रात्रि भोजन त्याग रूपं व्रत का कथन करते हैं। ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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