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________________ नववा अध्याय [ ३३१ । अतिरिक्त कामोद्रेक रूप राग भाव की विशिष्टता के कारण भाव हिंसा भी होती है। अन्य पापों की अपेक्षा भी अब्रह्म में अधिक गुरुता इस कारण है कि इस पाप की परम्परा अधिक काल तक और अधिक भयंकर रूप से चलती रहती है । इससे होने वाले अनर्थों की गणना नहीं हो सकती। कामान्ध पुरुष उचित-अनुचित का भान नहीं रखता और एक बार अनुचित प्रवृत्ति कर डालने पर अनेकानेक अनुचित और विकराल कार्य उसे करने पड़ते हैं। इसी कारण उसे महान् दोषों का वर्द्धक और पाप का मूल बतलाया है। शास्त्रकारों ने कहा है जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिट्ठो कया। सन्चमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए । अर्थात् जिन महाभाग पुरुषों ने स्त्री-संसर्ग तथा कामविभूषा की ओर से पीठ फेर ली है, चे समस्त उपलगों पर विजय प्राप्त करके समाधि में स्थित होते हैं। वास्तव में स्त्री परीषह अत्यन्त दुस्सह्य परीषह है, जो इसे सहन कर लेते हैं उन्हें अन्य परीषद और उपसर्ग सहना सरल हो जाता है। इस विषय का विशेष विवेचन ब्रह्मचर्य नामक अध्ययन में किया जा चुका है। जिज्ञासु पाठक वहां देखें। मूलः-लोभस्लेसमगुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निहीकामे, गिही पव्वइए न से ॥ ५ ॥ छाया:-लोभस्यैष अनुस्पर्शः, मन्येऽन्यलरामपि। ___ यः स्यात् सन्निधिं कामयेत् , गृही प्रव्रजितो न सः॥५॥ शव्दार्थः-लोभ नहीं करने के सम्बन्ध में यहां तक यह विशेषता बताई है कि गुड़, घी, आदि खाद्य पदार्थों में से किसी भी एक पदार्थ को, साधु होकर जो अपने पास रात भर रखने की इच्छा करे तो वह साधु नहीं है-गृहस्थ है। भाष्यः-शास्त्रकार क्रम प्राप्त पञ्चम महाव्रत का निरूपण करते हुए कहते हैं कि लोभ इतना बड़ा दुर्गुण है कि साधु यदि पाहार-पानी को भी, यदि रात भर रख कर दूसरे दिन उपभोग करने की इच्छा करे, तो इच्छा करने मात्र से ही वह साधु के पद से पतित हो जाता है और गृहस्थ की कोटि में आ जाता है। इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब खाने-पीने योग्य वस्तुओं को, अगले दिन के लिए संग्रह कर रखने की इच्छा मात्र से साधु अपने उच्च पद से गिर जाता है तो संग्रह करने से वह किसी भी प्रकार साधु नहीं रह सकता । इससे लाधुओं की अकिंचिनता का आभास मिलता है । वास्तव में सच्चा साधु वह है जो भविष्य की चिन्ता से सर्वथा मुक्त है और धर्मोपकरण के अतिरिक्त संसार के किसी श्री पदार्थ से, कुछ भी सरोकार नहीं रखता। ", लोभ बुरी विपदा है । वह एक बार किसी को चिपटा नहीं कि उसे पूरी तरह
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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