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________________ Doora - साधु-धर्म निरूपण राज सब प्रकार के असत्य का परिहार करके सत्य, न्याय, हितकारी, प्रियकारी और परिमित बचन बोलते हैं। सत्यव्रत की रक्षा के लिए शास्त्रों में पांच भावनाएँ वतलाई गई है । वे इस प्रकार हैं (१) बिना बिचारे, उतावला होकर, अवलर के प्रतिकूल वचन नहीं बोलना चाहिए। ऐसा विना सोचे-समझे बोलने से कभी असत्य या सावध भाषण हो लकता है (२) क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। क्रोध के आवेश में मनुष्य को उचित अनुचित, सत्-असत् का भान नहीं रहता । क्रुध मनुष्य कठोर बचन बोलता है, सत्य का हनन करता है, निन्दा का पात्र बनता है। क्रोध से अभिभूत व्यक्ति अपनी मर्यादा को भी सूल जाता है। अतः सत्य का सेवन करने के लिए क्रोध का त्याग्रह अवश्य करना चाहिए। (३) लोभ का त्याग करना चाहिए । लोभी मनुष्य धन आदि के लिए असत्य भाषण करता है, कीर्ति के वश असत्य भाषण करता है । भोजन-पान, वैभव, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, श्रादि पदार्थों के लिए भी असत्य भाषण करता है। लालची व्यक्ति लैकड़ों कारणों से असत्य का पात्र बन जाता है। श्रतएव सत्यवती को लोभ का त्याग करना चाहिए। (४) भयभीत नहीं होना चाहिए । भय, सत्य का संहार कर डालता है। जो निर्भय नहीं है वह शरीर-सुख के लिए, सम्पत्ति नष्ट होने के भय से, दंड के भय से असत्य भापण करने लगता है। (५) सत्यवादी को हंसी-मस्करी नहीं करनी चाहिए । हंसोड़ असत्य और अशोभन वचन बोलते हैं। हास्य अपमान का जनक है और उस से परनिन्दा और पर पीडा हो जाती है । हंसी के समय उचित-अनुचित का भेदज्ञान नहीं रहता। श्रतएव सत्यवादी को हास्यशील नहीं होना चाहिए। , असत्य भाषण के इन पांच कारणों का त्याग करने से असत्य भाषण का श्रवसर नहीं पाता। इसी कारण शास्त्रकारों ने इन्हें सत्य व्रत की भावना कहा है। मूलः-चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमेत्तं पि, उग्गहसि अजाइया ॥३॥ छायाः-चित्तवन्तमचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु । ___ दन्तशोधनमानमपि, अवग्रहमयाचित्वा ॥ ३ ॥ - शब्दार्थः-अल्प या बहुत, सचेतन अथवा अचेतन, यहां तक कि दांत साफ करने का तिनका भी चिना याचना के ग्रहण नहीं करते हैं।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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