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________________ - - । ३२० 1 ब्रह्मचर्य-निरूपण तक विवेकी व्यक्तियों को अश्लील चित्र-सिनेमा देखने में बहुत विवेक रखना चाहिए और नैतिकता होन, अश्लीलतापूर्ण, व्यभिचारवर्द्धक सिनेमा न स्वयं देखना चाहिए, न अपनी संतान को दिखलाना चाहिए । ब्रह्मचर्य-साधना में यह भयकंर अन्तराय है। (६) व्यसन-त्याग-आजकल अनेक दुर्व्यसन लोगों में घर वनाये हुए हैं। सौ व्यक्तियों में से पांच भी ऐसे व्यक्ति मिलना कठिन है जो किसी न किसी दुर्व्यसन से अस्त न हो। कोई तमाखू पीता है, कोई खाता है कोई नाक के द्वारा उसका सेवन करता है। कोई वीड़ी के रूप में, कोई सिगरेट के रूप में, कोई किसी रूप में तमाखू की अाराधना करता है। कोई गांजा पीता है, कोई अफीम खाता है, कोई भंग या मदिरा का पान करता है । काफी का काफी से अधिक प्रचार बढ़ गया है और चाय की चाह भी अत्यधिक फैल गई है। तात्पर्य यह कि इन सव विषयाक्त वस्तुओं का विभिन्न रूपों में सेवन किया जा रहा है और इस कारण ब्रह्मचर्य की आराधना में वड़ी वाधा पड़रही है। तमाखू के सेवन से वीर्य उत्तेजित होकर पतला पड़ जाता है, पुरुषत्व शक्ति क्षीण होती है, पित्त विकृत हो जाता है, नेत्र ज्योति मंद होती है, मस्तिष्क और छाती कमजोर हो जाती है, खांली दमा और कफ की वृद्धि होती है । इसी प्रकार चाय, काफी आदि समस्त नशैली वस्तुओं का सेवन करने से स्वास्थ्य के साथ ब्रह्मचर्य को हानि पहुँचती हैं । श्रतएव इनका त्याग करना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले पुरुष का कर्तव्य है कि वह न केवल खान-पान के संबंध में, वरन् अपने प्रत्येक व्वहार में खूब सतर्क और विवेकवान् हो . और विरोधी व्यवहारों से सर्वदा बचता रहे ऐसा करने पर ही ब्रह्मचर्य व्रत स्थिर रह सकता है। ब्रह्मचर्य व्रत का यथाविधि अनुष्ठान करने वाले महात्मा में एक प्रकार का विचित्र तेज आ जाता है । उसमें ऐसी शक्तियां आविर्भूत होती है जिनकी car, साधारण लोग नहीं कर सकते। ब्रह्मचर्य के प्रताप से सीता के लिए अग्नि कमल बन गई थी. सुदर्शन के लिए शूली ने सिंहासन का रूप धारण कर लिया था । यह सव ब्रह्मचर्य का अलौकिक प्रभाव है। विषय-वासना के कीट, नास्तिक और बहिरात्मा लोग जिस महत्ता को कल्पना समझते हैं वही महत्ता ब्रह्मचारी प्राप्त करता है। या शास्त्रकार ने बतलाया है कि देव, दानव, श्रादि ब्रह्मचारी के सामने नम्र हो जाते हैं। उनके चरणों में नमस्कार करते हैं । सो यह प्रभाव उपलक्षण समझना चाहिए । ब्रह्मचारी पुरुप अक्षय और अनन्त सुख प्राप्त करता है। इसलोक में उसे अदभत शांति, संतोष, निराकुलता और स्वस्थता प्राप्त होती है। साथ ही वह श्रावागमन के चक्र से छूट जाता है । इस प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत उभयलोक में हितकारी है, सखकारी है, एकान्त कल्याणकारी है। प्रियकारी है। वही नर और नारी का परम श्राभूषण है। उसके बिना अन्य प्राभूषण दूषण रूप हैं । व्यर्थ हैं । ब्रह्मचर्य ही जीवन
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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