SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३१८ ] ब्रह्मचर्य - निरूपण " • करने का सामर्थ्य है । जो मनुष्य अपनी भावना को पवित्र बनाता है वह पवित्र चन जाता है और जिसकी भावना निकृष्ट होती है वह स्वयं विकट वन जाता है । हमारे समस्त कार्य-कलाप भावना के ही मूर्त रूप होते हैं । अतएव जो मनुष्य जैसा बनना चाहे उसे उसी प्रकार का संकल्प दृढ़ करना चाहिए । ' मैं ब्रह्मचारी हूं 'ब्रह्मचर्यं पालन मेरा पवित्रतम् कर्त्तव्य है', 'जीवन भले ही नष्ट हो जाय पर मेरा व्रत खंडित नहीं होगा' ' मैं अपना सर्वस्व ठुकरा कर भी ब्रह्मचर्य का ही पोलन करूंगा " संसार की कोई भी प्रचंड शक्ति मुझे अपने वृत से च्युत नहीं कर सकती', मेरी संकल्पशक्ति के सामने जगत् नहीं ठहर सकता, ' मेरा निश्चय सुमेरु की तरह अटल और अकंप ही है और रहेगा ', ' मेरे संकल्प में पूर्व और सर्वोपरि क्षमता है " जगत् के सलिन एवं निकृष्ट प्रलोभन सुझे कदापि आकर्षित नहीं कर सकते' इत्यादि रूप से अपने संकल्प में दृढ़ता लाने से चिंत्त में स्थिरता उत्पन्न होती है और आत्मा में प्रलोभनों पर विजय पाने की शक्ति जागृत होती है । श्रतएव ब्रह्मचारी पुरुष को अपना संकल्प सुदृढ़ बनाना चाहिए । (२) निर्मल दृष्टि - जैसे माता और वहिन पर नजर पड़ते ही चित्त में एक प्रकार की श्रद्धापूर्ण सात्विकता का उदय होता है और विकारों को कोई स्थान नहीं रहता, यह दृष्टि की निर्मलता का प्रभाव है ! यह दृष्ट्रि-निर्मल्य स्त्री मात्र में जगाने की सदा चेष्टा करना चाहिए। सर्व प्रथम तो स्त्री की और आँख उठाकर देखना ही नहीं चाहिए | अगर अचानक दृष्टि उस ओर चली जायतो तत्काल उसे हटा लेना चाहिए। दृष्टि हटा लेने पर भी मन से वह न निकले तो उसमें मातृत्वक श्रारोप करना चाहिए। अपनी माता या बहिन के साथ उसकी तुलना करना चाहिए। जब कभी किसी स्त्री से बातचीत करने का अनिवार्य श्रवसर आ जाय तो उसे माता या बहन कहकर संबोधन करना चाहिए । (३) सत्संगति - सत्पुरुषों की संगति करने से अज्ञान, चित्तविकार आदि दोष दूर होते हैं अनेक गुणों की प्राप्ति होती है । कहा भी है सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वम् । निर्मोहत्व निश्चतत्वं, निश्चलतत्वे जीवन्मुक्र्तः || श्रर्थात् - संतजनों की संगति से मनुष्य निःसंग ( अनासक्त ) वनता है, निःसंग होने से निर्मोह हो जाता है, निर्मोह होने से नित्य तत्व अर्थात् श्रात्मा की उपलब्धि होती है और आत्माकी उपलब्धि होने पर जीवनमुक्त हो जाता है । जीवित रहते हुए भी-शरीरकी विद्यमानता में भी अपर मोक्ष - श्रार्हन्त्य दशा - प्राप्त हो जाती है। वास्तव में संत पुरुषों का समागम एकान्त हित का कारण है और आत्म-श्रेय का प्रथम सोपान है। संत पुरुष के हृदय की पवित्रता का प्रभाव उनके समपिवर्त्ति - यों पर पड़ता है और नीच प्राणी भी पवित्रता प्राप्त कर सकता है । : (४) सत्साहित्य का अभ्यास - संत पुरुष जीवित साहित्य हैं । पर उनका योग 'जब न मिले तो उनकी पवित्र भावनाओं का जिस साहित्य में चित्रण किया गया है
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy