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________________ - ब्रह्मचर्य-निरूपण भ्रमण कहलाता है । भव-भ्रमण करने से गर्भ, जन्म, जरा मृत्यु श्रादि की अपरिमित वेदनाएँ भोगनी पड़ती है। नरक और तिर्यञ्च योनियों में जो असह्य यातनाएँ होती हैं वे सब भोगी जीवों को ही भोगनी पड़ती हैं । भोगों से पराङ्मुन मनुष्य इन वेदनाओं का शिकार नहीं होता । वह मोक्ष के अनन्त, अक्षय,अव्याबाध,असीम, अनिर्वचनीय और अपूर्व प्रानन्द का अनुभव करता है। तात्पर्य यह है कि आनन्द श्रात्मा का स्वभाव है । जो पुरुष शालिक आनन्द के रस का आस्वादन करते हैं वे इन जघन्य, घृणित विषयभोगों की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखना चाहते । और जो इन तुच्छ विषयभोगों में रचे रहते हैं वे चिन्तामणि का त्याग कर कांच के टुकड़े में अनुराग करते हैं। उन्हें वह स्वाभाविक, स्वाधीन ब्रह्मानन्द स्वप्न में भी उपलब्ध नहीं हो सकता। अतएव विवेकशील पुरुषों को चाहिए कि भोगों से विमुख होकर सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हो। सुख प्राप्ति के उद्देश्य से दुःख को अंगीकार न करें। मूलः-मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स, संसार भीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए, जहित्थित्रो बालमणोहरात्रो ॥ १५ ॥ छायाः-मोक्षामिकांक्षिणोऽपि मानवस्य, संसारभीरोः स्थितस्य धर्म। नेतादृशं दुस्तरमस्ति लोके, यथा स्त्रियो बालमनोहराः ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले, संसार से भयभीत, और धर्म में स्थित भी मनुष्य के लिए, मूखों के मन को हरने वाली स्त्रियों से बचना जितना कठिन है, संसार में और कोई वस्तु इतनी कठिन नहीं है। भाष्यः-संसार में यों तो अनेक प्रलोभन की वस्तुएँ हैं। धन के लिए लोग जामका सहन करते हैं। स्वजन की ममता प्रत्येक प्राणी के हृदय में विद्यमान रहती है। पत्र-पौत्र आदि के लिए तरह-तरह की विडम्बनाएँ लोग भोगते देखे जाते हैं। अपयश की वृद्धि के लिए लोग आकाश-पाताल एक कर डालते हैं। मनुष्य इत्यादि अनेक प्रलोभनों की शृंखलाओं में बुरी तरह जकड़ा हुआ है। किन्तु इन सबसे बड़ा एक अत्यन्त उग्र बंधन मनुष्य के लिए है-स्त्री । स्त्री का आकर्षण इतना प्रबल है कि उससे छटना सहज नहीं है। यह प्रलोभन इतना व्यापक है कि इसने समस्त संसारी जीवों को अपने में फँसा लिया है । मूर्ख तो मूर्ख हैं ही, पर इस प्रलोभन में पड़ कर बड़े-बड़े विद्वान् भी भूखों में मुख्य वन जाते हैं । यह आकर्षण योगियों को भी भोगियों की श्रेणी में खींच लाता है। तात्पर्य यह है कि राजा-रंक, पंडित-मूर्ख, रोगीनिरोगी. मनुष्य, पशु-पक्षी श्रादि सब के सब इस भयंकर फांसी को अपने गले में जाते हैं और वह भी स्वेच्छा से । जो लोग दैववश इस पाश में अब तक नहीं फंसे,
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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