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________________ [ २६८ ] ब्रह्मचर्य-निरूपण. यो तो प्रत्येक इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है, किन्तु अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा स्पर्शनेन्द्रिय को जीतना अधिक कठिन है। बड़े-बड़े तपस्वी और योगी भी इसके आकर्षण से कभी-कभी विचलित हो जाते हैं। फिर भी सच्चा तपस्वी और सच्चा योगी वही है जिसने समस्त इन्द्रियों को अपना अनुचर बना लिया है। स्पर्शनेन्द्रिय को वश में करना, वीर्य की रक्षा करना या स्त्री के संसर्ग का त्याग करना ब्रह्मचर्य का सर्व साधारण में प्रचलित अर्थ है । किन्तु उसके सूक्ष्म अर्थ पर दृष्टि डाली जाय तो प्रत्येक इन्द्रिय को जीतना और आत्म-निष्ठ बन जाना ब्रह्मचर्य का अर्थ है । जो महापुरुष स्पर्शनेन्द्रिय को पूर्ण रूप से जीत लेता है, वह शेष इंद्रियों को भी जीत लेता है। इसी कारण स्पर्शनेन्द्रिय रूप ब्रह्मचर्य पर विशेष चल दिया गया है। प्रकृत अध्याय में भी इसी अर्थ को मुख्य रख कर ब्रह्मचर्य का विचार किया गया है। जैसे खेत की रक्षा करने के लिए किसान खेत के चारों तरफ बाड़ लगा देता' है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शास्त्रकारों ने बाड़ों का विवेचन किया है। इनकी संख्या नौ है। इन चाड़ों की रक्षा करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। यहां मुल गाथाओं में शास्त्रकार ने बाड़ों का स्वरूप बतलाया है । वह इस प्रकार है: (१) जिस मकान में विल्ली रहती है उसी मकान में अगर चूहा रहे तो चुहे की जीवन-लीला समाप्त हुए बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार जिस मकान में कोई भी स्त्री रहती हो उसी मकान में अगर ब्रह्मचारी पुरुष रहे तो उसके ब्रह्मचर्य का विनाश हुए विना नहीं रह सकता । अतएव ब्रह्मचारी पुरुषको स्त्री वाले मकान में निवास नहीं करना चाहिए। (२) जैसे नीवू, इमली प्रादि खट्टे पदार्थों का नाम लेने से मुँह में पानी आ जाता है, इसी प्रकार स्त्री के बनाव शृंगार, हावभाव, विलास आदि का बखान करने से-उसकी चर्चा करने से अन्तःकरण में विकार उत्पन्न हो जाता है। अतएव ब्रह्मचर्य की रक्षा की इच्छा रखने वाले पुरुष को स्त्री सम्बन्धी चर्चा वार्ता नहीं करनी चाहिए। (३) सुना गया है कि जैसे चावलों के पास कच्चे नारियल रहने से उसमें कीड़े पड़ जाते हैं, अथवा आटे में भूरा कोला रखने उसका चन्ध नहीं होता, या पोदीना का अर्क, कपूर और अजवाइन का सत्व एकत्र करने से सब एकदम द्रवित हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री-पुरुष एक ही श्रासन पर बैठे-दोनों में शारीरिक घनिष्टता हो तो ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है। अतएव ब्रह्मचारी को स्त्री के साथ एक श्रासन पर नहीं बैठना और न घनिष्ठता ही बढ़ाना चाहिए । कहा भी है- . घृतकुम्भसमा नारी, तप्ताङ्गारसमः पुमान् । .. . तस्माद् वृतञ्च वा वह्नि च, नैकत्र स्थापयेद् वुधः॥ अर्थात् स्त्री घी के घड़े के समान है और पुरुष जलते हुए अङ्गार के समान है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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