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________________ [ २६६ ] धर्म-निरूपण 'शब्दार्थः-कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र होता है। भाष्यः-वर्ण-व्यवस्था का प्राधार जैन संस्कृत में क्या है, इस बात को यहां स्पष्ट किया गया है। कर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रसिद्ध है। उनमें से यहां श्राजीविका-निर्वाह के लिए की जाने वाली वृत्ति के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग किया गया है । तात्पर्य यह है कि भाजीविका के भेद से ही वर्गों में भेद होता है। जिन लोगों ने जन्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था की कल्पना की है,उनका प्रकारान्तर से यहां विरोध किया गया है। समाज-की-सुव्यवस्था के लिए अथवा. राष्ट्र के विकास के लिए कार्यों का विभाग होना अत्युपयोगी होता है । किन्तु वह विभाग कर्त्तव्य के अाधार पर ही हो सकता है। ... . जो पठन-पाठन आदि ज्ञान-प्रचार संबंधी कर्तव्य करता है वह ब्राह्मण कहलाता है। जो समाज की तथा राष्ट्र की रक्षा करता है, निर्वलो को सबलों द्वारा सताने से रोकता है, शत्रुओं के साथ देश की रक्षा के लिए जूझता है वह सेनापति, सैनिक आदि क्षत्रिय कहलाते हैं। - देश की आर्थिक स्थिति उन्नत बनाने के लिए जो लोग व्यापार करते हैं वे वैश्य कहलाते हैं। सेवा-वृत्ति अंगीकार करने वाले शूद्र कहलाते हैं। यहां यह स्पष्ट करदेना उचित होगा कि प्रत्येक व्यक्ति, समाज का एक अंग है। उसे अपने प्रत्येक व्यवहार में समाज के हित का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि समाज के हित में ही व्यक्ति का हित है और समाज के हित में व्यक्ति का अहित है। अतएव सव वर्ण वालों को समाज के हित को अग्रस्थान में रखकर ही अपनी आजीविका चलाना चाहिए । उदाहरणार्थ-क्षत्रिय अपने स्वार्थ के लिए, अपनी सत्ता स्थापित करने की लालसा से प्रेरित होकर, शस्त्र का प्रयोग न करे। इसी प्रकार वैश्य ऐसा कोई व्यापार न करे जिससे उसे लाभ होने पर भी देश को हानि पहुंचती हो। देश की हानि को भुलाकर अपना भला करने वाला कोई भी वर्ण चिरकाल तक सुखी नहीं रह सकता। समस्त नगर में आग लगने पर जैसे एक मकान का सहीसलामत बचा रहना शक्य नहीं है उसी प्रकार देश का अनिष्ट होने पर किसी व्यक्ति या किसी वर्ण का अनिष्ट नहीं रुक सकता।..... जव. जिस देश में, चारों वर्णो के व्यक्ति इस प्रकार सामाजिक भावना से प्रेरित होकर अपना-अपना कर्तव्य पूणे करते है, तब वह देश सम्पन्न, सुखी, स्वतंत्र एवं सन्तुष्ट रहता है। इस संबंध की प्रसंगोपात्त चर्चा अन्यत्र की जा चुकी । निर्ग्रन्थ-प्रवचन-सातवां अध्याय समाप्तम् .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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