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________________ सातवां अध्याय [ २६३ ] विलग बना रहता है, वह जल का स्पर्श नहीं करता। इसी प्रकार जो काम-भोगों की सामग्री के सम्पर्क में रहता हुआ भी, काम-भोगों से विलग रहता है-मन के साथ उनका संसर्ग नहीं होने देता वही सच्चा ब्राह्मण है। तात्पर्य यह है कि कास-भोगों से बचने के लिए, उनसे दूर भागना अनिवार्य ' नहीं है । जिसने अपने मन पर अधिकार स्थापित कर लिया है उसके लिए महल और श्मशान, वस्ती और वन समान हो जाते हैं। अनेक महात्माओं ने अपने मन को वशीभूत बना कर गृह में ही कैवल्य अवस्था प्राप्त की है । मुख्य वस्तु मानसिक अलिप्तता है। वन में रहने पर भी यदि मन अधीन न हुआ तो वन-वास से क्या लाभ है ? और यदि गृह-वास करते हुए भी मन पर परिपूर्ण नियंत्रण हो गया तो चन-वास की क्या आवश्यकता है? यहां वनवाल का निषेध किया गया है, ऐसा नहीं समझना चाहिए । वनवास एक विशिष्ट वातावरण उत्पन्न करने में सहायक होता है और मानसिक एकाग्रता . प्राप्त करने के लिए भी उसकी आवश्यकता है। वहां चित्त को चंचल करने के निमित्त प्रायः कम मिलते हैं । इसी कारण मुनि-जन वन-वास करते हैं । यहां तो केवल मानसिक अनासक्ति की प्रधानता प्रदर्शित की गई है,जो वनवास का ध्येय है। जो लोग मन को अलिप्त बनाये बिना ही, सिर्फ वन-वाल करके ही अपने को कृतार्थ मान लेते हैं, उन्हीं के विषय में यहां कहा गया है। अगली गाथा में सूत्रकार स्वयं यह विषय स्पष्ट करते हैं। मूलः-न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभयो । न मुणी रगणवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥१८॥ . छायाः-नापि मुण्डितेव श्रमणः, न ओंकारेण ब्राह्मणः। :: न मुनिररण्यवासेन, कूशचीरेण न तापसः ॥ १८॥ शब्दार्थः-मस्तक मुंडा लेने से ही कोइ श्रमण नहीं हो जाता, ओंकार शब्द का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं बन सकता, अरण्य में निवास करने से ही कोई मुनि नहीं होता और कुश (डाभ) के वस्त्र पहनने मात्र से कोई तपस्वी नहीं हो सकता। भाष्यः-सूत्रकार ने यहां बाह्याचार के संबंध में कथन किया है। समस्त वाह्य श्राचार, आभ्यान्तरिक श्राचार का पोषक होना चाहिए । जिन बाह्य क्रियाओं से, अात्मिक विशुद्धता सिद्ध नहीं होती, वे निरर्थक हैं। जैसे स्नान कर लेने से श्रात्मा की मलिनता दूर नहीं होती उसी प्रकार अन्य ऊपरी क्रियाओं से ही श्रात्मा की शुद्धि नहीं होती। सभी वाक्य सावधारण होते हैं, यह साहित्यज्ञों का मत है । इसके अनुसार 'न वि मुंडिएण समणो' के कथन से ' न वि मुंडिएण एव समणों' ऐसा समझना - चाहिए । अर्थात् मूंड मुँडालेने मात्र से ही कोई श्रमण नहीं हो जाता, ओंकार का
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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