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________________ [ २८२ ] धर्म-निरूपण . इस मानव-शरीर को निर्दोष आजीविका से धारण कर रक्खे। __ भाष्य:--सांसारिक विषय-भोगों की आकांक्षा जब अंतःकरण में उत्पन्न होती _ है तब मनुष्य अत्यन्त सक्लेशमय परिणामों से मुक्त हो जाता है। उसके चित्त की समाधि भंग हो जाती है । वह रात दिन भोगोपभोग की सामग्री जुटाने में व्यस्त रहने लगता है, क्योंकि सांसारिक भोगोपभोग पराश्रित हैं-बाह्य पदार्थों पर अवलंबित. हैं अतएव वाह्य पदार्थों को जुटाये बिना भोगोपभोग की प्राप्ति नहीं होती। जब मनुष्य भोगोपभोग जुटाने में व्यस्त हो जाता है तो घोर अशान्ति और चिन्ता का पात्र बनता है। यदि पाप का उदय हुआ तो वह सामग्री संचित होने के बदले नष्ट हो जाती है । पुण्योदय के फल-स्वरूप सामग्री की प्राप्ति हो जाती है तो उससे संतोष नहीं होता-प्रत्युत सामग्री-वृद्धि के अनुसार तृषणा की भी वृद्धि होती चलती है और उसके फल रूप में अशान्ति की उग्रता होती जाती है। उसके संरक्षण की एक नवीन चिन्ता का उदय होता है, दैवयोग से जब वह संरक्षण करने पर भी नष्ट हो जाती है तव वियोगजन्य संताप की अग्नि से मनुष्य भस्म होने लगता है। ___ यही नहीं, भोगोपभोग के सेवन से नवीन कर्मों का बंध होता है और बंध, मुक्ति का विरोधी है। अतएव जो मनुष्य मुक्ति की आकांक्षा करता है उसे बंध के कारणभूत विषयभोगों का परित्याग करना चाहिए। विषय भोगों की आकांक्षा का त्याग करना चाहिए, यह निषेध प्रधान उपदेश है, पर आकांक्षा न करके करना क्या चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए सूत्रकार ने विधिप्रधान विधान किया है कि पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय करने के लिए इस देह को धारण करना चाहिए अर्थात् निरवद्य आजीविका के द्वारा शरीर का पालन-पोपण करना चाहिए । संसार में अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं जो अपने जीवन का उद्देश्य ही नहीं समझते। उन्हें मानव-जीवन प्राप्त हो गया है अतएव वे उस जीवन को भोग रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि लोग जीने के लिए ही जीते हैं । इसके अतिरिक्त उनके जीवन का अन्य कोई उद्देश्य नहीं होता । इसी कारण संसार के अबोध प्राणी मानव-शरीर को पा लेने के पश्चात् भी उससे लाभ नहीं उठाते हैं । सूत्रकार ने उन्हें बोध देने के लिए यहां अत्यन्त महत्वपूर्ण बात कही है । सूत्रकार कहते हैं-संचित कर्मों का क्षय करने के लिए शरीर का पोपण कहा है शरीर का पोषण करने के लिए कर्मों का संचय मत करो। देह के निमित्त श्रात्मा की. अपेक्षा न करो। शरीर में अनुरक्त वनकर श्रात्मकल्याण को न भूलो । प्रत्युत श्रात्म-हित के लिए ही शरीर का रक्षण करने का विधान है। शरीर को पात्मिक कल्याण का साधन बनाओ । इसीमें देह की सार्थकता है। इसी में जीवन के महत्तम साध्य की सिद्धि है। यही मानव जीवन का चरम ध्येय है। . . __ . शरीर का पोपण जव अात्महित की दृष्टि से किया जाता है तब उसके पोषण के लिए ऐसे साधनों का प्रयोग होता है जिनसे आत्महित में विघ्न न पड़े । जो लोग
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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