SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २८० ] धर्म-निरूपण उत्पन्न हुए के समान-वृद्धावस्था से रहितं और अनेक सूर्यों की प्रभा के समान देदीप्यमान कान्ति से युक्त होते हैं। भाष्यः-पूर्ववर्ती गाथा में श्रावक का देव गति में जाना चताया गया था। सूत्रकार ने यहां देवगति की विशेषताओं का कथन किया है । मनुष्यगति की आयु, ऋद्धि, समृद्धि, श्रादि ले देवों की आयु और ऋद्धि श्रादि की तुलना की जाय तो प्रतीत होगा सांसारिक सुख मनुष्य गति में एक विन्दु के बराबर है तो देवगति में समुद्र के समान है । और जो श्रावक, मानव जीवन में त्याग और तपश्चर्या का अनुण्ठान करते हैं उन्हें वह सुखमय देव योनि प्राप्त होती है। ___मनुष्य की आयु प्रथम तो कम ही होती है, और वह भी निरुपद्रव नहीं है। अग्नि, जल, विष, शस्त्र श्रादि से बीच में ही वह शीत्र समाप्त हो सकती हैं। देवों की सागरों तक की लम्बी श्रायु है और बीच में वह कदापि नहीं टूट सकती। देवों की ऋद्धि के आगे मनुष्य की ऋद्धि नगण्य है, संताप कारक है, किसी भी क्षण नष्ट हो जाने वाली है। यही हाल मनुष्यों की समृद्धि का है। मनुष्यों में कोई अंधा, कोई काना, कोई लुला, कोई लंगड़ा, कोई बौना कुबड़ा, कोई कुरूप, विकृत अंगोपांग वाला और कोई चपटी नाक वाला होता है। इस कुरूपता का इच्छा करने पर भी मनुष्य प्रायः प्रतिरोध नहीं कर पाता । जो लोग सुन्दर समझे जाते हैं, उनमें भी कोई न कोई दोप विद्यमान रहता है। कदाचित् काई सौन्दर्य के समस्त लक्षणों से सम्पन्न पुरुप उपलब्ध हो जाय तो उसका शरीर औदारिक शरीर संबंधी स्वाभाविक दुर्बलता वाला होता है । तिसपर औदारिक शरीर भीतर से मल-मूत्र प्रादि घृणोत्पादक पदार्थों से भरपूर और अपावन है। देवों में, इन सव दोषों में से एक भी दोष नहीं पाया जाता । सभी देव सुन्दर एवं सौम्य होते हैं। उनका शरीर मल-मूत्र आदि अपावन वस्तुओं से सर्वथा रहित होता है और वे अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण कर सकते है। ' सुन्दर से सुन्दर मनुष्य भी वृद्धावस्था रूपी राक्षली का शिकार होने पर असु. न्दर दिखाई पड़ता है, पर देवों को वृद्धास्था का भोग नहीं बनना पड़ता । जब तक वे देव योनि में रहते हैं तब तक युवा ही रहते हैं । उनके गले में पहनी हुई माला का मुरझा जाना ही उनकी श्रायु की सन्निकट समाप्ति की सूचना देता है । ' उनके शरीर की भाभा की उपमा ही किसी के शरीर से नहीं दी जा सकती, अतएव खयं सत्रकार कहते हैं कि अनेक देदीप्यमान सूर्यों की भाभा के समान उनके शरीर की कान्ति होती है। ... . . . __ अतएव यह स्पष्ट है कि मनुष्य का शरीर, मनुष्य का ऐश्वर्य, मनुष्य के भोगोपभोग, और मनुष्य के सौन्दर्य से देवों का शरीर आदि बहुत ही उत्तम कोटि का होता है । इस संव की प्राप्ति, मनुष्य भव में सेवन किये जाने वाले सदाचार से होती है। अतएव सम्यक् चारित्र का अनुष्ठान करना चाहिए ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy