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________________ [ २७८ ] धर्म-निरूपण क्षमा-याचना करने के पश्चात् वह सतत् सावधान रह कर फिर उस भूल . को नहीं दुहराता है। . प्रायः देखा जाता है कि अनेक बार हमें ज्ञान नहीं होता, फिर भी हमारी किसी . कायिक, वाचिक या मानसिक चेष्टा से अन्य जीवों को कष्ट पहुंच जाता है । इस कष्टदान का प्रतीकार शुद्ध अन्तःकरण से क्षमा-याचना करना है। इसी कारण श्रावक और साधु सामुदायिक रूप से समस्त जीवों से क्षमा-प्रार्थना कर लेते हैं और कभीकभी ज्ञात अपराध की अवस्था में विशेष व्यक्तियों से क्षमा-याचना करते हैं। क्षमायाचना, यदि सच्चे अन्त:करण से की जाय तो, आत्म-शुद्धि का प्रबल कारण होती है। इसी प्रकार अपने अपराधी को क्षमा-प्रदान करना भी महत्वपूर्ण है । हृदय में जर निष्कषायता की भावना उत्पन्न होती है, श्रावेश का प्रावल्य नहीं होता, तव अपराधी को क्षमा देकर अपने हृदय को निश्शल्य बनाया जा सकता है। क्षमायाचना और क्षमा प्रदान से आत्म संतोष की अनुभूति होती है और वैर की परस्परा एवं चिरंतनता उच्छेद हो जाता है। अतएव हृदय को हलका बनाने तथा भावी कल्याण के निमित्त क्षमा का आदान-प्रदान अतीव उपयोगी है। मूलः-अगारी समाइ अंगाई, सड्ढी काएण फासए । पोसहं दुहश्रो पक्खं, एगराइं न हावए ॥ ६॥ छायाः अगारी सामायिकाङ्कानि; श्रद्धी कायेन स्पृशति । । पोपधमुभययोःपक्षयोः, एकरात्रं न हाययेत ॥६॥ शब्दार्थः-श्रद्धावान् श्रावक (गृहस्थ ) सामायिक के अंगों को काया के द्वारा स्पर्श करे-शरीर से पाले और दोनों पक्षों में, पोषध व्रत करे । इसमें एक रात्रि भी न्यूनता न करे। . . भाष्य:-श्रावक के समस्त प्राचार का मुख्य ध्येय सास्यभाव की प्राप्ति होना है। और साम्यभाव की प्राप्ति का साधन सामायिक है । अतएव विशेष रूप से सामायिक का विधान करते हुए. शास्त्रकार ने कहा है कि श्रावक को सामायिक के समस्त अंगों। समता, शान्ति आदि ) के पालन करने का विचार मात्र नहीं करना चाहिए . प्रत्युत शरीर से भी उसका अनुष्ठान करना चाहिए।. इसी प्रकार एक मास के दो पक्षों में अर्थात् शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में तीन-तीन पोषधोपवास भी उसे अवश्यमेव करने चाहिए। संस्कृत भाष्य में सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-'समस्य राग द्वेष विनिर्मुक्तस्य सतः, श्रायः-- ज्ञानादीनां.. लाभः प्रशमसुखरूपः, समायः, समायः एव सामायिकम् ' अर्थात् रागादि विकार रहित पुरुष को प्रशम आदि की प्राप्ति होना सामायिक है । ' पोषं-धर्मस्य पुष्टिं धत्ते इति पोषधः ' अर्थात् जिससे धर्म का पोपण होता है-जिस व्यापार से धर्म की पुष्टि होती है वह पोषध व्रत है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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