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________________ [ २६२ ] धर्म-निरूपण (२) अपरिगृहीता गमन-जो स्त्री किली के द्वारा गृहीत नहीं है, ऐसी कुमारी अथवा वेश्या आदि के साथ, उसे परस्त्री न मान कर, गमन करना अपरिगृहीता गमन नामक दूसरा अतिचार है, इससे भी चतुर्थ अणुव्रत में दोष लगता है। (३) अनंगक्रीड़ा-काम भोग के प्राकृतिक अंगोंके अतिरिक्त अन्य अंगों से कहल-क्रीड़ा करना अनंग क्रीड़ा है । इससे भी द्रव्य और भाव प्राणों का घात होता है। (४) परविवाहकरण-स्वकीय पुत्र, पुत्री, भाई श्रादि संबंधी जनों के अतिरिक्त पर का विवाह कराना अथवा अपना दूसरा विवाह कराना परविवाह करण नामक अतिचार है। (५) तीव्र काम भोगाभिलाषा-काम-भोग सेवन करने की प्रबल अभिलाषा रखना, निरन्तर इन्हीं विचारों में डूबे रहना भी ब्रह्मचर्याणु व्रत का अतिचार है। .. (५) परिग्रह परिमाणव्रत-मुनिराज संसार की समस्त वस्तुओं का त्याग करके पूर्णरूपेण अकिंचन बन जाते हैं, किन्तु सांसारिक व्यवहारों में फँसा हुश्रा श्रावक परिग्रह का पूर्ण रूप से परित्याग नहीं कर सकता । उसे पद-पद पर धन प्रादि की आवश्यकता होती है। फिर भी उसे अपनी आकांक्षाएँ परिमित करनी चाहिए। यदि आकांक्षाओं का प्रसार रोका न जाय तो. जीवन अत्यन्त प्रशान्त, असन्तुष्ट और असम बन जाता है। अतएव श्रावक को परिग्रह की मर्यादा कर लेनी चाहिए। इससे अधिक परिग्रह में नहीं रक्खूगा, इस प्रकार मर्यादा बांध लेने से समता और संतोष का आविर्भाव होता है और तभी जीवन का रस लिया जा सकता है। __ व्यक्तिगत जीवन को सरल और सन्तोषमय बनाने के लिए परिग्रह की मर्यादा आवश्यक है, यही नहीं वरन् समाज में एक प्रकार की आर्थिक समता लाने के लिए भी यह व्रत परमावश्यक है । जिस समाज में आर्थिक वैषम्य अधिक बढ़ जाता है जिसमें कुछ लोग अधिक धनसम्पन्न बन जाते हैं और अधिकांश लोग आवश्यक धन भी नहीं प्राप्त कर सकते, उस समाज में स्थायी शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। उसमें वर्ग-विग्रह का जन्म होता है । एक वर्ग दूसरे वर्ग के विरुद्ध तीव्र असंतोष से प्रेरित होकर क्रांति करता है और दोनों वर्गों की सुख-शांति शून्य में विलीन हो जाती है। तीन संघर्ष का दौरदौरा हो जाता है। इस अवांछनीय परिस्थिति से बचने के लिए भी परिग्रह की मर्यादा करना आवश्यक है। - इसके अतिरिक्त धन का संग्रह करना जीवन का साध्य नहीं है । सुख-पूर्वक जीवन-निर्वाह के लिए धन की अावश्यकता है, इसलिए वह साधन के रूप में ही व्यवहृत होना चाहिए। आवश्यकता से अधिक धन का संचय करना उचित नहीं है। प्रायः अनेक पुरुष अपने वाल-बच्चों के लिए धन-संचय कर जाना चाहते हैं, पर ऐसा करने की अपेक्षा बाल-बच्चों को सुयोग्य सुशिक्षित और सदाचारी वना देना ही अधिक योग्य है । चालक यदि सुयोग्य होगा तो वह स्वयं द्रव्याजैन करके सुखपूर्वक
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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