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________________ . [ २५४ धर्म-निरूपण (१) अहिसा महाव्रत-मन से, वचन से और काय से किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, न दूसरे से कराना और हिंसा करने वाले की अनुमोदना न करना। (२) सत्य महाव्रत-असत्य, अप्रिय, क्लेशकारक, संदेहजनक तथा हिंसाजनक भापण न करना, हित, मित और पथ्य वचन बोलना। (३) अचौर्य महाव्रत-सूक्ष्म या स्थूल कीमती या अनकीमती, यहाँ तक कि दांत साफ करने के लिए घास का सूखा तिनका भी विना दिये न ग्रहण करना। (४) ब्रह्मचर्य महाबत--ब्रह्मचर्य का पूर्णरूपेण पालन करना अपनी समस्त इन्द्रियों का संयम करना, विपयविकार को समीप न आने देना। (५) अपरिग्रह महाव्रत- बाह्य और श्रान्तरिक परिग्रह का परित्याग करना, आत्मा से भिन्न समस्त पदार्थ पर हैं उन सब से ममता हटा लेना, शासक्ति का त्याग करना, मू भाव का समूल नाश कर देना अपरिग्रह महावत कहलाता है। __ यहां सर्वविरति के रूप में महाव्रता का उल्लेख उपलक्षण मात्र है। इससे पांच समितियों और तीन गुप्तियों का भी ग्रहण करना चाहिए और शास्त्र-प्रतिपादित अनाचीर्ण आदि समस्त विधि-विधानों का समावेश करना चाहिए । जैसे स्नान न करना, शरीर-संस्कार न करना, मालिश और उबटन न करना, खुले माथे रहना, पैदल विहार करना, पलंग आदि पर न बैठना, चिकित्सा न करना, वस्ती कर्म और . विरेचन का त्याग करना, आदि-आदि साधु का समस्त आचार. यहां समझ लेना चाहिए । दशवकालिक आदि सूत्रों में उसका प्रतिपादन विस्तारपूर्वक किया गया है, अतएव जिज्ञासु वहां देखें । विस्तार के प्राधिक्य से यहां उसका निरूपण नहीं किया जाता है। ... मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच अानव हैं,इन पांचों प्रकार के प्रास्त्रवों से रहित होना भी साधु-विरति है। गृहस्थ सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मिथ्यात्व ले और देशविरति प्राप्त करके एक देश अविरति से मुक्त होते हैं, पर पांचों प्रकार के प्रास्त्रवों से महामुनि ही मुक्त होते हैं। देशविरति, देशसंयम, संयमासंयम और गृहस्थधर्म या अणुविरति समानार्थक शब्द हैं। श्रावक देशविरति का अाराधक होता है । देशविरत्ति मुख्य रूप से वारह व्रत रूप है । वारह व्रत इस प्रकार हैं:... (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण-त्रस जीवों की, विना अपराध किये जान वझकर-मारने की बुद्धि से हिंसा का त्याग करना । तात्पर्य यह है कि गृहस्थ श्रावक जीविकोपार्जन के लिए वाणिज्य, कृषि आदि अनेक ऐसे कार्य करता है जिनमें स जीवों की भी हिंसा हो जाती है, किन्तु वह हिंसा संकल्पी-मारने की बुद्धि से की हुई नहीं है। वह प्रारंभी हिंसा है । उस हिंसा से श्रावक बच नहीं पाता, अतएव वह केवल संकल्पी हिंसा का ही त्याग करता है । फिर भी श्रावक यथासंभव यतता के साथ ही प्रवृत्त होता है और त्रस जीवों की तथा स्थावर जीवों की निष्प्रयोजन हिंसा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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