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________________ - जठा अध्याय . [ २४६ ) सन्मुख रख कर धर्मानुष्ठान करता है उसे सांसारिक सुन तो अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं, उनकी कामना करने से आध्यात्मिक फल की प्राप्ति रुक जाती है । सांसा. रिक लाभ के लिए की जाने वाली क्रिया का दुरुपयोग इसी प्रकार है जैसे को श्रा उड़ाने के लिए समुद्र में चिन्तामणि फेंक देना । निदान से धर्म क्रिया संसार के असार विषय-भोगों के लिए विक जाती है। इसी प्रकार निदान को शल्य कहा गया है। शल्य-रहित जीव ही व्रती होता है । कहा भी है-'निःशल्यो व्रती।' श्रतएव स्तम्यग्दर्शन में श्रासरत होकर, निदानशल्य का त्यागकर, उत्कृष्ट परिणाम बनाये रखना ही सम्यक्त्व की सरलता पूर्वक पाने का मार्ग है। मूलः-जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करोति भावणं । अमला असंकिलिट्ठा, ते होत परिचसंसारी ॥ ११ ॥ छाया:-जिनवचनेऽनुरका, जिनवचन ये कुर्वन्ति भावेन । अमला असंलिप्टाः, ते भवन्ति एरीसंसारिणः 11 शब्दार्थ:--जो जीव जिन भरवान् के वचन में श्रद्धावान हैं और ओ अन्तःकरण ले जिन-वचन के अनुसार अनुष्ठान करते हैं, ये मिथ्यात्व रूपी मल से रहित तथा संक्लेश से रहित होकर परीत संसारी बन जाते हैं। भाज्य-समयदर्शन के फल का निरूपए करते हुए सूत्रकार ने यह बताया है कि जो भाग्यवान् प्राणी जिन भगवान के वचनों में आसक्त होते हैं अर्थात् बीतरागोस्त आपस पर सुदृढ़ श्रद्धा रखते हैं, किसी भी अवस्था में, किसी भी संकट के श्रा पड़ने पर भी वीतराम-प्ररूपित आगम से किएरीत श्रद्धान नहीं करते है, साथ ही पंजिनोल आगम के अनुसार ही चलते हैं, वे मिथ्यात्व आदि रूप कर्म-गल से रहित हो जाते हैं। उन्हें कर्म-संधजनक संल्लेशं भी नहीं होता है और वे अन्दन्त काल तक के भव-धमए को घटा कार सीमित कर लेते हैं। अर्थात् अर्द्ध पुद्गल परावतन फाल तक, अधिक से अधिक रे संसार में रहते हैं । तदनन्तर उन्हें मुश्ति प्राप्त हो लाती है। __... संसारी पाणी चाहे जितना और चाहे जितने विषयों का गंभीर शान प्राप्त कर ले किन्तु उसका शान अत्यन्त शुद ही रहता है। जगन में अनन्त सूक्ष्म और सनम तर भाय ऐसे हैं जिनका शान शस्थ जीवों को कदापि नहीं हो सकता । अनन्त पदार्थी लो जाने दिया जाय, और केवल एक दी पदार्थ को लिया जाय तो भी रही कहना होगा कि अनन्त धर्मात्मक एक पदार्थ को, उसकी कालिक अनन्तानन्त र्यायों सहित जानना छद्मस्थ के लिए संभव नहीं है । एक पदार्थ में अनन्त धर्म मीर एक-एक धर्म की पनन्त पर्याय मला सर्चम जीर कैसे जान सकता है । इस प्रकार एकही पदार्थ का पूर्ण सान न हो तब सम्पूर्ण पदाधों के वास्तविक स्वरूप को जानते का दावा कौन कर सकता है। इसीलिए यागम में कहा है--
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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