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________________ [ २४४ ] सम्यक्त्व-निरूपण 'गुणस्थानवर्त्ती जीव को सम्यक् चारित्र नहीं होता, देशाविरत सम्यग्दृष्टि को एक देश चारित्र होता है, प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर उत्तरवत्र्त्ती समस्त गुण: स्थानों में सर्वविरति चारित्र होता है । : यदि सम्यक् चारित्र, सम्यग्दर्शन के होने पर भजनीय हैं, तो सूत्रकार ने दोनों का एक साथ होना क्यों कहा है ? इस शंका का समाधान यह है कि सम्यग्दर्शन होते ही चारित्र सम्यक् हो जाता है, इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र का एक साथ होना कहा गया है । अथवा अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व और चारित्र-दोनों का घात करती है । जब अनन्तानुबंधी का क्षय या उपशम होता है तब सम्यग्दर्शन के साथ ही साथ सामायिक चारित्र भी उत्पन्न हो जाता है । वह चारित्र यद्यपि त्याग प्रत्याख्यान रूप नहीं होता, किन्तु उससे सम्यग्दृष्टि की प्रवृत्ति श्रात्मो न्मुखी हो जाती है । इस अपेक्षा से दोनों को युगपद्भावी कहा गया है। : शंका-यदि दोनों सहभावी हैं तो सूत्रकार ने संस्यग्दर्शन को पहले होने वाला क्यों प्रतिपादन किया है ? समाधान - जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक् चारित्र नहीं होता, अतएव सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यक् चारित्र उसका कार्य है । कार्य-कारण भाव दो सहभावी पदार्थों में नहीं होता, श्रव्यवहित पूर्वोत्तर क्षणवर्त्ती पदार्थों में ही कार्य-कारण भाव संबंध हुआ करता है । इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन को पूर्ववर्ती और सस्यक् चारित्र को उत्तरक्षणवर्त्ती निरुपण किया गया है । तात्पर्य यह है कि अनन्तानुबंधी प्रकृति चारित्रमोहनीय प्रकृति के अन्तर्गत है और चारित्र मोहनीय प्रकृति चारित्र का घात करती है इस लिए अनन्तानुबंधी का क्षय आदि होने पर चारित्र का आविर्भाव अवश्य होना चाहिए, अन्यथा अनन्तानुः बंधी को चारित्रमोहनीय में अन्तर्गत नहीं किया जा सकता । चारित्र का आविर्भाव होने पर भी चतुर्थ गुणस्थानवत्ती जीव को अविरत सम्यग्दृष्टि कहा गया है, इससे यह भी स्पष्ट है कि चतुर्थ गुणस्थान में विरति रूप चारित्र नहीं होता । इन दोनों विवक्षाओं को ध्यान में रखते हुए यहां सम्यग्दर्शन के होने पर चारित्र को भजनीय बताने के साथ ही, दोनों को सहभावी और सम्यक्त्व को पूर्वकाल भावी कहा गया है । इसी लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात् बची हुई कर्मों की स्थिति में से पल्योपम पृथक्त्व की स्थिति कम होने पर देशविरति का लाभ होना बतलाया है और इस स्थिति में से भी संख्यात सागरोपम की स्थिति कम होने पर सर्वविरति की प्राप्ति होना कहा गया है । मूल:- नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विषा न होंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि मुक्खस्स निव्वाणं ७ छाया:- नादर्शिनो ज्ञान, ज्ञानेन बिना न भवन्ति चरणगुणाः । 'गुणिनो नास्ति मोचः, नास्त्यमुक्रस्य निर्वाणम् ॥ ७ ॥
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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