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________________ छठा अध्याय [ २३७ ] कौन देव - गुरु वन्दनीय हैं, कौन चन्दनीय हैं ? जैसे अज्ञानी पुरुष कांच और हीरे को समान समझता है उसी प्रकार वैनयिक, सब देवों को, सब गुरुओं को, चाहे वे सुदेव हों चाहे कुदेव हों. चाहे सुगुरु हों, चाहे कुगुरु हो, समान रूप से विनय का भक्ति का पात्र समझता है । किन्तु यह ठीक नहीं है । जगत् में जो अनेक धर्म प्रच लित हैं, उनकी प्रकृति सर्वाश में एक नहीं है उनके तत्वज्ञान में और आचार-विचार में स्पष्टतः भेद प्रतीत होता है । ऐसी हालत में सभी धर्मों को समान समझ लेना सत्य का तिरस्कार करना ही है । यह ठीक है कि सत्यं सत्य ही है, चाहे वह कहीं भी उपलब्ध हो उसे ग्रहण करना चाहिए और विधर्मी या विधर्म के प्रति विद्वेष की भावना हृदय में नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। तथापि सब धान बाईस पंसेरी नहीं होना चाहिए । सत्य-असत्य की मीमांसा श्रवश्य कर्त्तव्य है, यही मानवीय बुद्धि के प्रकर्ष की सर्वाधिक उपयोगिता है । विनयवादी - (१) सूर्य (२) राजा (३) ज्ञानी (४) वृद्ध (५) माता (६) पिता (७) गुरु (८) धर्म, इन आठों का मन, वचन और काय से सत्कार करना और विनयभक्ति करना मानते हैं । इस प्रकार आठों को मन, बचन, काय और भक्ति से गुणित करने पर वैनयिकों के ३२ भेद होते हैं । पाखंड मत के सब मिलाने से तीन सौ त्रेसठ भेद वन जाते हैं । यह भेद मध्यम विवक्षा से समझने चाहिए । इस प्रकार यह सब पाखंड मतावलम्बी कुमार्ग की और ले जाते हैं अर्थात् हित पथ में प्रवृत्त कराते हैं । इन सब का त्याग करके अनेकान्तवाद की पवित्रता से अंकित, जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित सन्मार्ग को ही हित-पथ समझना चाहिए । जो इस प्रकार का दृढ़ श्रद्धान रखते हैं, वही वास्तव में सम्यग्दृष्टि होते हैं । मूलः - तहित्राणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं । भावेण सद्धहंतस्स, सम्मत्तं तं विद्याहियं ॥ ४ ॥ छाया:- तथ्यानाम् तु भावानां सद्भाव उपदेशनम् । भावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तत् व्याहृतम् ॥ ४ ॥ शब्दार्थ:- :- तथ्य भावों का अर्थात् जीव आदि नव पदार्थों की स्वतः या दूसरे के उपदेश से, भावपूर्वक श्रद्धा करना सम्यक्त्व कहा गया है । भाष्य:- जीव, जीव, पुण्य, पाप, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह न पदार्थ हैं। मुमुक्षु जीवों को इनका वास्तविक स्वरूप समझकर इन पर भावपूर्वक श्रद्धान करना आवश्यक है। इसी श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा गया है ! - अन्य के उपदेश के बिना और अन्य के उपदेश से । प्रथम प्रकार का सम्यक्त्व निसर्गज सम्यग्दर्शन - लाता है । दूसरा अधिगम कहलाता है । इनका स्वरूप पहले ही कहा जा चुका है 1 तत्वार्थश्रद्धा रूप सम्यक्त्व दो प्रकार से होता हैं
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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