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________________ [. २३२ .. सम्यक्त्व-निरूपण कर एकान्त काल को कारण मानने से यह एशान्ताद है । काल-एकान्तवाद के सम.. र्थन में यह कहा जाता है कि प्रजा की उत्पत्ति, नियत समय पर ही माता के गर्भ से होती है; अमुक-अमुक वनस्पतियां नियत समय पर ही ( मौसिम के छानुसार) उत्पन्न होती है-दिना नियत समय के उनकी उत्पत्ति नहीं होती । नियत समय पर अर्थात् तीसरे और चौथे आरे में ही मुक्ति प्राप्त होती है, नियत समय पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल: का प्रारंभ ओर अन्त होता है । नियत समय से अधिक किसी का जीवन स्थिर नहीं रह सकता। तात्पर्य यह है कि संसार का समस्त व्यवहार काल पर अवलंवित है । काल रूप निमित्त को पाकर ही प्रत्येक कार्य उत्पन्न होता है। कहा भी है कालः पचति भूतानि, काल: संहरते प्रजाः। ........... कालः सुप्तेपु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः॥ ... अर्थात् काल ही भूतों का परिपाक करता है, काल ही जीवधारियों का संहार करता है, काल लोये हुओं में जागरूक रहता है-जबलवं सोते हैं तब भी काल जागृत रहता है और काल का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । अर्थात् काल जो चाहता है वही होता है, काल के विरुद्ध कुछ भी नहीं हो सकता। . ... ... ... . इस कालैकान्तवाद पर जरा विचार करना चाहिए। यदि प्रत्येक कार्य में काल ही एक मात्र कारण है और पुरुषों का उद्योग आदि कारण नहीं है तो जगत् में लमस्त प्राणी जो निरन्तर उद्योगशील रहते हैं, उनका उद्योग निरर्थक हो जायगा। काल का श्राश्रय लेकर चुपचाप बैठ जाने वाले पुरुप की भूख-प्यास क्या भोजन. का नियत समय आने पर बिना भोजन-व्यापार के ही मिट सकती है ? इसके. अतिरिक्त काल सदैव विद्यमान रहता है। वह अनादि अनन्त द्रव्य है। अतएव प्रत्येक कार्य की प्रति. क्षण उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि कार्योत्पत्ति का कारण काल प्रतिक्षण विद्यमान रहता है। यदि यह कहा जाय कि काल कभी किसी कार्य को उत्पन्न करता है, कभी किसी कार्य को, अतएव सक कार्य एक साथ उत्पन्न नहीं होते । तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि काल के इस क्रम का कारण ज्या है ? यदि काल का स्वभाव इस क्रम का कारण है तो कालेशान्तवाद खरिंडत हो जाता है, क्योंकि काल के अतिरिक्त स्वभाव को भी कारण मानना एड़ो । यदि काल के क्रम में काल को ही कारण माना जाय तो कम वन नहीं सकता, क्योंकि काल सदा विद्यमान होने के कारण नित्य है । अतएक एकान्ततः काल को कारण मानना युक्ति-संगत नहीं सिद्ध होता और अनुभव से भी सिद्ध नहीं होता। (२) स्वभाववादी-स्वभाववादी लमस्त कार्यों की उत्पत्ति में अकेले स्वभाव . को ही कारण मान कर काल आदि अन्य कारणों का सर्वथा निषेध करता है । वह कहता है-स्त्रीत्व की समानता होने पर भी बन्ध्या के पुत्र न होना, शिर की तरह शरीर का एक अंग होने पर भी हथेली पर रोम न होना, इन्द्रित्व की समानता होने पर भी चनु से शब्द का सुनाई न देना, कानों से दिखाई न देना, इत्यादि सय स्वभाव
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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