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________________ [ २१६ ] ज्ञान-प्रकरण अपनी जाति और कुल की प्रतिष्ठा को कलंकित करते हुए संकोच नहीं करता। उनका चित्त सदा चंचल, निर्बल. और उद्विग्न रहता है। वह इन्द्रियों की प्यास बुझाने के , . लिए ज्यों-ज्यों प्रयत्न करके भोगोपभोग की सामग्री संचित करता है त्यों-त्यों इन्द्रियों. की ध्यास वढ़ती जाती है । ज्यों-ज्यों इन्द्रियों की प्यास बढ़ती जाती है त्यों-त्यों) इन्द्रिय लोलुप की व्याकुलता बढ़ती जाती है ज्यों-ज्यों व्याकुलता बढ़ती जाती है। त्यों-त्यों उसका आर्तध्यान बढ़ता जाता है और ज्यों-ज्यों आर्तध्यान बढ़ता जाता है त्यों-त्यों पापकर्मों का बंध बढ़ता जाता है। इस प्रकार इन्द्रिय-लोलुप मनुष्य अन्त में... | भीषण व्यथाएँ सहन करता है। शरीर पर ममता होने से दृष्टि वहिर्मुख हो जाती है । वहिर्मुख व्यक्ति आत्मा के अनन्त सौन्दर्य को दृष्टिगोचर करने में अन्धा हो जाता है... वह आत्मा के सदगुण रूपी सुरभि-समन्वित प्रसूनों को नहीं संघ सकता । निर्मल. अन्तःकरण से उद्भूत होने वाले अन्तनोंद को वह नहीं सुन सकता.। वह शरीर की बनावट में , ही जीवन की कृतार्थता मानता है । शरीर को अपना' समझकर उसकी सेवाशुश्रूषा करता है । वह शरीर के असली अपावन रूप को नहीं देखता । वहं आत्मा और शरीर का पार्थक्य नहीं मानता । श्रात्मा चेतनमय है, शरीर जड़ है, आत्मा अमर तत्व है और शरीर विनश्वर पुद्गल की पोय है, यह भेद-ज्ञान उसके अन्तर में परिस्फुरित नहीं होता । इसलिए वह शरीर को महत्तम उद्देश्य.की पूर्ति का साधन समझकर उसका उपयोग नहीं करता वरन् शरीर के लिए महत्तम उद्देश्य का परित्याग करदेता है । वहिरात्मा जीव की स्थिति बड़ी दयनीय है! . . अन्तरात्मा शरीर को आत्महित-साधन का निमित्त मानकर उसका पोषण करते हैं। वे उस पर अणुमात्र भी शासक्ति नहीं रखते । शरीर पर मोह रखने वाले का मोह क्रमशः विस्तृत हो जाता है, क्योंकि शरीर का मोही शरीर को.साताकारी. पुद्गलों पर राग और असताकारी पुद्गलों पर द्वेष भी करने लगता है । तदनन्तर उन पुदगला की प्राप्ति में जिसे वह बाधक समझना है उससे भी द्वेष करने लगता है। इस प्रकार शरीर-मोह से मोह की परम्परा क्रमशः परिवर्धित होती जाती है और उसका कहीं अन्त नहीं प्रतीत होता । अतएव अन्तरात्मा, पुरुप शारीरिक मोह को हृदय में अवकाश ही नहीं देते । वह सोचता है कि-मोह के फंदे से सदा वचते. रहना चाहिए । मोह ही श्रात्मा के शत्रुओं का सेनापति हैं। इसके अधीन होकर श्रात्मा अपनी ज्ञान-प्रानन्दमय कोष को. लुटा रहा है । जो इसके कैद से मुक्त हो. जाता है वह चिदानन्द का पात्र, परम वीतरागी, परम अविनाशी, सर्वज्ञ, सिद्ध, वद्ध और शुद्ध बन जाता है। भला. श्रात्मा और शरीर जैसे विपरीत.गुण वाले पदार्थों का । परस्पर क्या संबंध ! मोह और श्रात्मा की कैसी मैत्री ? एक श्राकुलता उत्पन्न करने वाला और आत्मा निराकुलतामय है। मोह दुःख रूप है, श्रात्मा सुखमयी है। आत्मा. अजान के कारण ही मोह के चकर में पड़ा है। जव शरीर और आत्मा का. भेदविजान हो जाता है तो आत्मा निर्मल दृष्टि करता है और विरक्ति एवं अनासक्ति के तीक्ष्ण, शस्त्र से; आत्मिक अनुभूति के पराक्रम का अवलंबन करके मोह आदि शत्रुओं
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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