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________________ - - पांचवां अध्याय २१३ सम्यक्चारिज में ही अन्तर्गत हो जाते है, इस कारण उनका पृथक् नाम-निर्देश नहीं । किया गया है। - शंकाः-यदि इन पाँच कारणों से आप सुक्ति होना मानते हैं तो इनमें सम्यरशान का समावेश नहीं होता। अतएव या तो सम्यग्ज्ञान को मोक्ष का कारण न माने अथवा पाँच के बदले छह कारणं बतलावें। __समाधान:-जैसे बंध के पाँच कारणों में, मिथ्यादर्शन में ही मिथ्याज्ञान का समावेश किया गया है, उसी प्रकार मोक्ष के कारणों में सम्यग्दर्शन में ही सम्यग्ज्ञान का समावेश किया गया है। यदि वंध के कारणों में मिथ्यादर्शन और मिथ्यानान को पृथक्-पृथक् गिन कर छह कारणों को माना जाय तो मोक्ष के कारणों में भी सम्परदर्शन और सम्यग्ज्ञान को जुदा-जुदा गिनकर छह कारण मानना सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। क्योंकि मिथ्यादर्शन से होने वाला बंध सम्यग्दर्शन से रुकता है, मिथ्याज्ञान से होने वाला बंध, सम्यग्ज्ञान से रुकता है, मिथ्याचारित्र से होने वाला बंध संस्यक्चारित्र के द्वारा रुक जाता है, इसी प्रकार प्रमाद, कपाय और योग से होने वाला बंध अप्रमाद, अकषाय और प्रयोग से रुकता है। .इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि संसार और मोक्ष का कारण न अकेला शान है, नन अकेला चारित्र है, किन्तु ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही कारण होते हैं । शान आदि की मिथ्या रूप परिणति संसार का कारण है और सस्यक रूप परिणति मोक्ष का कारण है। जब मुक्ति चारिन के बिना प्राप्त नहीं हो सकती तो सिर्फ ज्ञान से मुक्ति की आशा करना अंसिद्धि को आमंत्रण करना ही है। ऐसे लोग अपने हृदयं को भले ही समझाले कि हम जान से ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे, पर उनका आश्वासन अन्त में मिथ्या ही सिद्ध होगा और उन्हें धोखा खाना पड़ेगा। मूलः-न चित्ता तायए भासा, कुत्रो विजाणुसासणं । विसगणो पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो॥१०॥ छाया.-न चिन्नासायन्ते भाषाः, कुतो विद्यानुशासनम् । विपरणाः पापकर्ममिः, व लाः पण्डित मानिनः ॥ १० ॥ शब्दार्थः-अपने को पंडित मानने वाले-वस्तुतः अज्ञानी लोग पाप कर्मों के कारण दुःखी होते हैं। सीखी हुई नाना प्रकार की भाषाएँ उनकी रक्षा नहीं कर सकतीं। तथा विद्याएँ और व्याकरण आदि शाल कैसे रक्षा कर सकते हैं ? . भाप्यः-सानेकान्त में पुनः दोप दिखाने के लिए सूत्रकार ने इस सूत्र का फथन किया है। पंडित अर्थात् सत्-असत् का विवेक करने वाली द्धि जिसे प्राप्त होवद पंडित' कहलाता है। जो वास्तव में सत्-असत् के मान से शून्य होने के कारण पंडित तो नदी है फिर भी अपने को पंडित समझता है उसे पंडितमानी या पंडितम्मन्य कहते
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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