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________________ - पांचवां अध्याय [ २११ ] कर बैठता है जिससे सुख के बदले और अधिक दुःख की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार जो ज्ञानवान तो है, सुख के उपायों को भली भांति जानता है, पर सुखप्राप्ति के लिए उचित श्राचरण नहीं करता उसे भी सुख नहीं प्राप्त होता, जैसे कोई रोगी औषधी को जानता है पर उसका व्यवहार नहीं करता तो वह नीरोग नहीं हो सकता। वास्तव में जान का फल संयम है-सदाचार है । जिस ज्ञानवान को संयम की प्राप्ति • नहीं हुई, उसका जान बन्ध्य है-निष्फल है. । श्रतएव विद्वानों को चरित्रनिष्ठ बनना चाहिए और चारित्रनिष्ठ पुरुषों को ज्ञान की प्राप्ति के लिए उद्यत होना चाहिए। तभी दोनों की साधना में पूर्णता पाती है। जैसे एक चक्र से रथ नहीं चलता उसी प्रकार अकेले ज्ञान या चारित्र से सिद्धि नहीं मिलती, जैसे चंदन का भार ढोने वाला गर्दभ चन्दन की सुगंध का आनंद नहीं ले सकता उसी प्रकार चारित्र के बिना ज्ञानी, ज्ञान का भार भले ही लादे फिरे पर वह ज्ञान का रसास्वाद नहीं कर सकता। इसी लिए सर्वक्ष प्रभु ने ज्ञान और क्रिया से सिद्धि-लाभ होने का निरूपण किया है। . . मूलः-भयंता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो। .. बायावीरियमित्तेणं, समाससति अप्पयं ॥ ६ ॥ छाया भणन्तोऽकुर्वन्तश्न, वन्धमोक्ष प्रतिशिनः । . वाग्ववीर्यमानेण समाश्वलन्त्यात्मानम् ॥६॥ शब्दार्थः-ज्ञान को ही बंध और मोक्ष का निमित्त मानने वाले लोग कहते हैं पर करते नहीं हैं। वे अपनी वाचनिक वीरता मात्र से आत्मा को आश्वासन देते हैं। भाष्यः-पूर्वोक्त ज्ञानेकान्त का निरसन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो लोग श्रुत का अभ्यास करते हैं-पढ़ते-लिखते हैं, दूसरों को लच्छेदार भापा में उपदेश देते हैं किन्तु प्राप्त ज्ञान के अनुसार पाचरण नहीं करते और जो मात्र जान से.बंध-मोक्ष का होना मानते हैं, वे घोखे में पड़े हुए हैं। वे अपनी आत्मा को मिथ्या श्राश्वासन दे रहे हैं। वस्तुतः वे आत्मा का कल्याण साधन नहीं कर सकते। यही नहीं 'स्वयं नष्टः परान्नाशयति' अथवा 'अन्धेन नीयमानः अंधः' इन लोकोक्तियों के अनुसार वे श्रात्मा का ही नहीं वरन् दूसरों का भी घोर अहित करते हैं । वे अपनी कुतर्क गाथाओं के द्वारा अन्य भद्र जीवों को भी श्राचरए से विरत करके उन्हें उन्मार्ग में ले जाते हैं। शत्रुओं का आक्रमण होने पर जैसे मौखिक वहादुरी से-जवानी शूरता से उन्हें परास्त नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भात्मा के शत्रुत्रों को जान बघारने मात्र से पराजित नहीं किया जा सकता । उन्हें पराजित करने के लिए क्रिया की चारित्र की आवश्यकता होती है। शंका-जान से मोक्ष मानने वाले सांरुप श्रादि बंध शान से नहीं मानते, किन्तु अशान अथवा मिथ्याशान से मानते हैं फिर यहां मान से बंध-मोक्ष मानने वाला उन्हें , क्यों कहा है ?
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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