SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २०४ ] झान-प्रकरण का मूल है। जैसे बिना मूल के वृक्ष नहीं रहता उसी प्रकार ज्ञान के विना संयम नहीं. रह सकता! ..... ... यहां मूलं गाथा में 'दया' शब्द उपलक्षण है । उससे समस्त चारित्र अर्थात् . संयम का ग्रहण करना चाहिए। ..... मूलः-सोचा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणई सोचा, जं छेयं तं समायरे ॥५॥ छाया:-श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् । . उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत् ॥ ५॥ .. . . . . . शब्दार्थः-(पुरुष) सुन कर कल्याण को जानता है, सुन कर पाप को जानता है, सुन करके ही कल्याण-अकल्याण-दोनों को जानता है। जो कल्याणकारी हो उसका आचरण करना चाहिए। भाष्यः-आत्म-ज्ञान का महत्व बताने के पश्चात् उसकी प्राप्ति के उपाय का कथन करना आवश्यक है, अतएव सूत्रकार ने यहां यह बताया है कि उस ज्ञान की प्रांहिं का उपाय क्या है ? : श्रुत्वा का अर्थ है-सिद्धान्त को गुरु महाराज से सुनकर। तात्पर्य यह है कि सिद्धान्त को श्रवण करने से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है और श्रुतज्ञान से पाप-पुण्यशुभ-अशुभ का विवेक अर्थात् विज्ञान की प्राप्ति हो जाने से पाप का प्रत्याख्यान होता है और संयम का आचरण किया जा सकता है । भगवती सूत्र में कहा है- . .. ‘से णं भंते ! सवणे किं फले ? णाणफले । सेणं भंते ! णाणे किंफले ? विन्नाणफले । से णं भंते ! विन्नाणे किं फले ! पञ्चमवाफले । सेणं भंते ! पच्चखाणे किं फले? संजम फले ।' यहां श्रवण का फल ज्ञान, ज्ञान का फल विज्ञान (हेयोपादेय का विवेक), विज्ञान का फल प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान का.फल संयम बताया गया है। . .. श्रवण करने के लिए श्रांठ गुणों की आवश्यकता होती है। जो इन गुणों से रहित होते हैं उन्हें श्रवण का परिपूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। आगमसत्थम्गहणं जं वृद्धि गुणहिं अट्टाहि दिह। वेति सुयनाणलाभ, तं पुच विसारया धीरा ॥ . · सुस्सूसई षडिपुच्छइ, सुइ गिरहइ य ईहए यावि। तंत्तो अपोहती य, धारेह करेइ य सम्मं ॥ ... ; बुद्धि के आठ गुणों से भागम-शास्त्र का ग्रहण कहा गया है । जो इन गुणों सहित श्रवण करते हैं उन्हीं को श्रुतशान का लाभ होता है, ऐसा पूर्वी के वेत्ता कहते हैं । वुद्धि के आठ गुण इस प्रकार हैं:-१) विनयपूर्वक गुरु-मुख से श्रवण करने की इच्छा करे (२) पूछे अर्थात् श्रवण किये हुए श्रुत में संदेह का निवारण करे (३) पठित ..
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy