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________________ चतुर्थ अध्याय [ १७१ ] (१६) गुरु, रोगी, तपस्वी, वृद्ध और नवदीक्षित का वैयावृत्य करना। (१७) समाधि भाव रखना। (१८) नित्य नये सान का अभ्यास करना। ... (१६) श्रुत-भक्ति अर्थात् सर्वक्ष भगवान के वचनों पर श्रद्धा-भक्ति रखना। . (२०) जिनधर्म की प्रभावना करना-अर्थात् अपने विशिष्ट शान से, चारित्र से, वाक् कौशल से तथा शास्त्रार्थ प्रादि करके जैन धर्म की महिमा का विस्तार करना एवं धर्म के विषय में फैले हुए अज्ञान को दूर करना । उल्लिखित बीस कारणों से जीव को तीर्थकर नाम कर्म का बंध होता है। तीर्थकर प्रकृति समस्त पुण्य प्रकृतियों में श्रेष्ठ है । उसकी प्राप्ति के लिए उच्चतर श्रेणी की निर्मलता अपेक्षित है । इन बीस कारणों में उत्कृष्ट रसायन श्राने से ही तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है। इस महान पुण्य प्रकृति के बंध के लिए भावों की अत्यन्त निर्मलता की भावश्यकता होती है । क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्व या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की अवस्था में, अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवे अप्रमत्त संयत नामक गुणस्थान तक चार गुणस्थान वाले मनुष्य ही इसे बांध सकते हैं । और वे भी उसी समय वांध सकते हैं जब केवली भगवान् या द्वादशांग के सम्पूर्ण ज्ञाता श्रुतकेवली के निकट मौजूद हो।। आठ कर्मों में से चार घातिया कमों का क्षय करने वाले, जीवन मुक्त-सशरीर परमात्मा अरिहंत कहलाते हैं । अरिहंत भगवान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग और अनन्त श्रामिक सुख से संपन्न होते हैं। मोहनीय कर्म का क्षय कर देने के कारण उनकी समस्त इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं । उनके चार श्रघातिक कर्म शेष रहते हैं और उन्हीं के कारण वे परा मुक्ति नहीं पाते । शुक्ल ध्यान के पालम्बन से जब चार अघातिक कर्म भी क्षीण हो जाते हैं तब अदेह दशा या परम मुक्ति प्राप्त होती है । उस समय चह सिद्ध कहलाने लगते हैं। प्रकृष्ट वचन को प्रवचन कहते हैं । अर्थात् जो वचन प्राप्त पुरुष द्वारा उच्चारण किया गया हो, युक्तियों द्वारा खंडित न हो सकता हो, प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमारणों से प्रतिकूत न हो, पूर्वापर विरोध से युक्त न हो, प्राणी मात्र का कल्याण करने वाला हो, वह वचन प्रवचन अथवा श्रागम कहलाता है । संस्कृत-व्याकरण के अनुसार 'प्रकृष्टस्य वचनं प्रवचनं' अर्थात् 'प्रकट पुरुप का वचन' ऐसी भी व्युत्पत्ति हाती है । उसके तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं थाता। इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी प्राप्त पुरुष का वचन ही 'प्रवचन ' पद का अभिधेय सिद्ध होता है। श्रझान-अंधकार का विनाश करके सम्यम्झान का प्रकाश करने वाले, तथा निर्मल सम्यक्त्व के दाता, पंच महाव्रतधारी सुनिराज गुरु कहलाते हैं । गुरुयों में जो ज्येष्ठ होते हैं वे स्थविर कहलाते हैं। सूत्र-सिद्धान्तों के मर्मन विद्वान बटुश्रुत हैं। अनशन श्रादि विशिष्ट तप करने वाले तपस्वी कहलाते हैं। इन सब में वात्सल्य भाव
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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